Friday, 4 November 2022

अस्तित्व - मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये

ये कहानी है मेरे फ्लैट लेने की.. जहाँ कुछ भी नहीं था वहां से एक फ्लैट की मालकिन बनने की. हौसला हो और कुछ कर दिखाने  के जज़्बा,  तो कुछ भी संभव है

बात 2009 की है. हमारी शादी की सिल्वर जुबिली एनिवर्सरी पर हमारे जेठ जी (भैया) और मेरी जिठानी(दीदी) दिल्ली से यहाँ भोपाल हमारे पास आये थे. उस दौरान हमने थोड़ा बहुत भोपाल भ्रमण भी किया. भैया को भोपाल बहुत पसंद आया और उन्होंने ये इच्छा जाहिर की कि रिटायरमेंट में बाद यहीं भोपाल में सेटल होना चाहते हैं. कारण दो थे, एक तो भोपाल की शांति, हरियाली और यहाँ का माहौल और दूसरा एक भाई और उसके परिवार का (हमारा) भी यहीं पर होना. हमने पहले ही 1999 में एम पी हाउसिंग बोर्ड का एक डुप्लेक्स ले लिया था हालाँकि उस समय हम सरकारी बंगले में रह रहे थे क्यूंकि हमारा ये घर शहर से थोड़ा दूर था और इस तरफ ज्यादा डेवलपमेंट भी नहीं हुयी थी.

भैया के रिटायरमेंट में कुछ देर थी. 4 साल बाद यानि 2013 के अक्टूबर में उन्हें रिटायर होना था. तो हमें कुछ फ्लैट्स या मकान देखते रहने को कहा गया ताकि कुछ अच्छा लगे तो उन्हें खबर किया जा सके.

मुझे ऐसे कामों में बड़ा मज़ा आता है. तो बस लग गयी मैं भैया के लिए घर ढूँढने के काम पर. पहले भोपाल के नामी बिल्डर्स का पता किया फिर उनके प्रोजेक्ट्स का. 2011 में भैया दीदी पुनः भोपाल आये और इस बार मकसद था घर फाइनल करना. जो कुछ घर मैंने शार्टलिस्ट किये थे उन्हें देखने हम निकल पड़े. सब कुछ देखकर एक नतीजे पर पहुँचना था ताकि जब दो ढाई साल बाद भैया यहाँ आयें तो अपने घर में आ सकें.

एक जगह कुछ अच्छा तो दूसरी जगह कुछ और. कहीं रूम के साइज़ पसंद नहीं आ रहे थे, कहीं हाउस का प्लान. आखिर कर हम वहां पहुंचे जहाँ हमारी बात पक्की होनी थी और उनका सैंपल फ्लैट देखा. 3 बीएचके फ्लैट्स, बिल्ट अप एरिया और कारपेट एरिया भी काफी था और कमरों के साइज़ भी अच्छे थे. ऐसा नहीं कि एक डबल बेड लगा दो तो आस पास चलने की जगह ही न बचे रूम में. ड्राइंग रूम और डाइनिंग कम लिविंग स्पेस भी काफी अच्छा. तीन तीन वाशरूम्स भारतीय शैली और वेस्टर्न शैली दोनों में. प्लानिंग काफी अच्छी थी. और उससे भी ज्यादा आकर्षित किया हमें उसके इंटीरियर ने. बहुत ही खूबसूरत इंटीरियर. वाल पेपर से लेकर, बिस्तर, सोफे, सेण्टर टेबल, डाइनिंग टेबल, डेकोरेशन सब जबरदस्त. लग रहा था सभी उसी समय शिफ्ट कर जायें वहां.

सैंपल फ्लैट तो सभी को पसंद आया था. वो 3 बीएचके था. भैया ने तय किया कि वो 2 बीएचके लेंगे. मुझे तो कुछ भी नहीं लेना था. पर ये सैंपल फ्लैट मेरे मन में इतना बस गया था कि मैंने भी इसे लेने का मन बना लिया. अब तो मुझे लेना था और यही वाला लेना था. उसके डिटेल्स लिए. किस्मत से हम वहां तब गए थे जब 3 दिनों का ऑफर चल रहा था कि जो भी इन तीन दिनों के भीतर फ्लैट बुक करेगा उसे मॉड्यूलर किचेन फ्री दिया जायेगा. तो भाई हमें तो बुक करना था इसे. एक कहावत है न “घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने” बस वही स्थिति थी. एक प्राइवेट नौकरी, छोटी सी तनख्वाह पर ख्वाब बड़े. ख्वाब को और बड़ा बनाया मैंने... फ्लैट मुझे पूल फेसिंग ही चहिये था और एक कवर्ड पार्किंग भी चाहिए थी. हाहाहा. सबके अलग से प्राइस जुड़ते गए फ्लैट की प्राइस में. कहा गया कि बुकिंग तीन दिनों के अन्दर करवानी है. और बुकिंग राशि.. 10% फ्लैट के प्राइस की. घर चले हम. रास्ते में मेरे पतिदेव ने पूछा, “क्या कर रही हो? कहाँ से लाओगी इतना पैसा?” उन्होंने आश्चर्य मिश्रित भाव से मुझे देखा और हंसने लगे. मुझपर तो जैसे इन सबका कोई फर्क नहीं पड़ रहा था. बल्कि मेरी फ्लैट लेने की इच्छाशक्ति और दृढ होती जा रही थी. कैसे होगा, क्या होगा, पैसा कहाँ से आएगा, ये सब सोचे बिना मैंने उत्तर दिया.. हो जायेगा सब. 

फ़िलहाल परेशानी ये नहीं थी कि आगे क्या होगा, परेशानी ये थी कि अभी वो 10% कैसे जमा होगा. पापा हमेशा मेरे पथ प्रदर्शक भी रहे और उन्होंने हमेशा से मेरा उत्साह वर्धन भी किया. उन्हें जब ये खबर सुनाई तो वो बहुत खुश हुये और फिर मैंने जब झिझकते हुए बुकिंग राशि की बात की तो कहा, बस इतनी सी बात, मैं इन्तजाम कर देता हूँ. तुम आगे बढ़ो. और पापा ने मेरी इस समस्या का हल तो कर दिया.

अब आगे बात थी कि लोन कैसे लिया जाये? प्राइवेट नौकरी थी, जिसकी कोई सिक्यूरिटी नहीं होती. तनख्वाह भी कुछ ज्यादा नहीं थी. कौन सा बैंक मुझे कितना लोन दे सकता था अब ये देखना था. मुझे तो ज्यादा से ज्यादा लोन लेना था इसीलिए उस बैंक का चुनाव करना था जो ज्यादा से ज्यादा लोन मुझे दे सके.     

तीन अलग अलग बैंकों में गयी. आपकी तनख्वाह पर कुछ कैलकुलेशन की जाती है कि उसमें से आप महीने में खर्च कितना करेंगे, कितना बचा पायेंगे ताकि आप लोन की किश्त भर सकें, और कितने साल में आप लोन की राशि चुकायेंगे. इन सबका आंकलन करके उसमें से तीनों ने जो राशि मुझे ऑफर की उनमें सबसे ज्यादा लोन देने वालों से बाकि दोनों में 3 और 1 लाख का अंतर था. अब जिसने मुझे सबसे ज्यादा लोन देने का आश्वासन दिया था उसके पास गयी. भैया दिल्ली लौट चुके थे. उनके लोन के बारे में बात करने का जिम्मा मेरे पतिदेव का था, तो वो भी मेरे साथ गए.

लोन लेने में भी अजीब बात है. आपको जरूरत है, आपके पास पूँजी नहीं है, इसीलिए आप लोन लेने गए हैं, और बैंक में आपसे उल्टा सवाल किया जाता है कि आपके पास क्या क्या है. यानि कि आपके पास कम से कम उतने ही राशि की अचल सम्पति या फिर जेवर होने चाहिए. अब मेरे पास तो वैसा कुछ था नहीं. अगर था भी तो लोन की राशि का करीब 20%. तो वो मेरे पतिदेव की और मुखातिब हुए. उनसे पूछा “आप क्या करते हैं?” मैं भड़क गयी. पलट कर मैंने कहा, आप इनसे क्यूँ पूछ रहे हैं कि ये क्या करते हैं? उन्होंने जवाब दिया “ताकि ये आपके गारंटर बन सकें”. मैंने उनसे कहा, जब इन्होने घर के लिए लोन लिया था तब मुझे तो गारंटर नहीं बनाया गया. अब इन्हें मेरा गारंटर क्यूँ बनाना है? जवाब था मेरी नौकरी का प्राइवेट होना. मैंने कहा, “मेरी गारंटी कोई नहीं देगा. सारे तथ्य आपके सामने हैं. आपको लोन देना है तो दें नहीं तो मत दें”. अपेक्षित यही था कि अब मुझे यहाँ से निकलना है बुकिंग कैंसिल करवानी है और बुकिंग राशि वापस लेनी है. पर हुआ अनापेक्षित. उन्होंने कहा, ठीक है आप फॉर्म भर कर दे दीजिये हम आपको सूचित करते हैं.

पता नहीं बैंक वालों ने क्या देखा या क्या सोचा, उन्होंने मेरा लोन एप्लीकेशन ले लिया. मैंने बिलकुल मना कर दिया था कि मेरे लिए कोई भी गारंटर नहीं होगा और किसी भी डॉक्यूमेंट पर मेरे सिवा मेरे पति या किसी और के हस्ताक्षर नहीं होंगे. ये भी मान लिया गया.

कई दिनों तक कोई सूचना नहीं आई. बैंक गयी तो पता चला कि वो प्रोजेक्ट और बिल्डर्स की छानबीन कर रहे हैं ताकि ये सुनिश्चित हो जाये कि दोनों हर तरह से सही हैं, कोई फर्जीवाड़ा नहीं हैं. हमारी ही सुरक्षा की बात थी. देर आये पर दुरुस्त आये.

मैं इस बीच बिल्डर के पास भी गयी. उन्होंने गहरी सांस भर कर बताया, “मैडम ये बैंक वाले हमसे कितने पुश्तों के कागजात मांग रहे हैं” और उन्होंने मुझे वो मोटी सी फाइल भी दिखाई जिनमें ढेर सारे डाक्यूमेंट्स थे जिनकी बैंक ने मांग की थी. साथ साथ मुझे एक दो बैंकों के नाम सुझाये और वहां से लोन लेने को कहा. दरअसल हर प्रोजेक्ट के साथ कुछ बैंक जुड़े होते हैं और बिल्डर्स चाहते हैं कि हम उन्हीं में से एक से लोन लें ताकि उनको सहूलियत हो. दुर्भाग्यवश मेरा बैंक उनके बैंक लिस्ट में नहीं था इसीलिए छानबीन कुछ गहरी हो रही थी. मैं अपने बैंक के चुनाव पर अडिग रही. मुझे बिल्डर की सहूलियत नहीं, अपने पैसों की सुरक्षा देखनी थी.

एक साल यूँ हीं बीत गया. इस बीच में तीन बार मुझसे सैलरी स्लिप की मांग की गयी. मेरा उस समय का ऑर्गेनाईजेशन कभी किसी को सैलरी स्लिप नहीं देता था. एक बार बैंक के लिए माँगा था तो मुझे उसपर ये लिखकर मिला था कि ये सिर्फ बैंक के काम के लिए है. अब बार बार बैंक द्वारा उसकी मांग करना उनके मन में ये शक पैदा कर रहा था कि कही मैं उसका इस्तेमाल किसी और जगह नौकरी ढूँढने में तो नहीं कर रही. बैंक से लोन मिलेगा कि नहीं, ये तो निश्चित नहीं था पर मेरी नौकरी का जाना अब सुनिश्चित होता दिख रहा था.

लोन मिल जायेगा तो उसका 20% मुझे भी चुकाना होगा, हालाँकि किश्तों में और साथ साथ फ्लैट के कीमत की बची हुयी राशि भी चुकानी होगी. अब गंभीरता से बैठ कर इसपर भी विचार करना था. पूरी कैलकुलेशन करनी थी. तो लग गयी मैं अपने गणित के ज्ञान के साथ. स्कूल में पढ़े हुए प्रतिशत, ब्याज सब याद आ गए. हाँ, इसमें दसवीं के बाद का गणित काम नहीं आता. सारी सेविंग्स खंगाल ली गयी. हर जरूरी कागजात का मुआयना किया गया. कहते हैं न, बूँद बूँद से घड़ा भरता है. शादी के साढ़े छब्बीस साल बीत गए थे और नौकरी करते हुए 18 साल. फिर बिल्डर के कार्य पूरा करके देने के अगले 36 महीने, यानि 3 साल भी. गणना के हिसाब से लग रहा था कि बात बन जाएगी. फिर मेरा घर के राशन पानी में कौन सा ज्यादा पैसा लगना था. फालतू खर्च करने की मेरी आदत नहीं थी. फिर भी जो थोडा बहुत इधर उधर खर्च हो जाता था उसपर थोड़ी रोक लगानी थी. दिल ने कहा “हो जायेगा” और मैंने भी माना “हो जायेगा”. इतना तय था कि किसी से अब पैसा नहीं लेना है.

लोन मिलते मिलते 1 साल हो गया. तब तक मेरी भी NIT की पीएचडी प्रवेश परीक्षा क्लियर हो गयी थी फ़ेलोशिप के साथ. नौकरी से स्टडी लीव लेकर पीएचडी ज्वाइन कर ली मैंने. अब तो बहुत ज्यादा फ़ेलोशिप मिलती है पर जब मैंने ज्वाइन किया तब ये रीविजन नहीं हुआ था. मेरी फ़ेलोशिप की राशि मेरी सैलरी से आधी हो गयी थी. उसपर परेशानी ये कि मुझे हाउस रेंट अलाउंस(HRA) भी नहीं मिल रहा था क्यूंकि मैं पति के नाम पर मिले सरकारी आवास में रह रही थी. तो सीधा सीधा नुकसान. एक तरफ NIT में पीएचडी दाखिले की ख़ुशी, दूसरी तरफ ईएमआई भरने की चिंता. ये तो शुक्र की बात थी कि डेढ़ साल तक मुझे पूरा ईएमआई नहीं भरना था और सिर्फ ब्याज की राशि अदा करनी थी पर पीएचडी तो लम्बी चलनी थी. फिर मेरी कार की भी ईएमआई साथ साथ थी.

पतिदेव ने एचआरए की रकम के हर्जाने को अपने सर लिया और मेरी कार कि ईएमआई का 75 प्रतिशत और पेट्रोल का खर्च अपने जिम्मे लिया. गाड़ी चल पड़ी पर रह रह कर मुझे लगता कि बाद में मुश्किल आएगी और मैं लोन की राशि नहीं चुका पाऊँगी. लिहाजा छः महीने बाद ही मैं पहुँच गयी बिल्डर के पास और उससे कहा कि मेरी बुकिंग राशि वापस कर दे, मैं फ्लैट नहीं खरीदना चाहती. उसने मेरी बात सुनी और मुझे समझाया कि अगर मैं फ्लैट छोडती हूँ तो वो तो उसे ज्यादा कीमत पर किसी और को बेच देगा पर मैं अगर उसी फ्लैट को वापस लेना चाहूँ तो मुझे वो बढ़ी कीमत पर मिलेगा या फिर बिक गया तो मिलेगा भी नहीं. उसने मुझे कुछ दिन और सोच विचार कर लेने को कहा. मैं उसकी बात मानकर वापस तो आ गयी पर उससे कहा कि वो मेरे नाम से चेक तैयार रखे, मैं कभी भी लेने आ सकती हूँ.

वापस आकर मैंने अपनी एक सहकर्मी से बात की. उसके पति लोन से सम्बंधित कार्य ही देखते थे. उससे पूछा कि अगर मैं लोन नहीं चुका पाई तो उस स्थिति में क्या होगा? सीधे पूछा, “कहीं मुझे जेल तो नहीं जाना पड़ेगा”? उसने कहा नहीं, उस स्थिति में बैंक आपके फ्लैट को बेचकर अपना पैसा चुका लेगा. बस आपके तब तक की जमा की हुयी ईएमआई की राशि डूब जाएगी. आपको पैसे वापस नहीं मिलेंगे.

“जेल नहीं जाना पड़ेगा” सुनकर कुछ तो राहत मिली, सोचा चलने देते हैं.

दो साल बाद पीएचडी की स्कॉलरशिप राशि में रीविजन हुआ. दो साल बाद स्कॉलरशिप की राशि वैसे भी थोड़ी बढ़नी थी कुछ और भी बढ़ी. काम थोडा आसान हुआ पर कब तक? साढ़े तीन साल बीतते बीतते पीएचडी तो खत्म हो गयी. पुरानी संस्था, जिससे स्टडी लीव लेकर पीएचडी करने आई थी, उसने वापस नौकरी पर सादर बुलाया मुझे, पर वो पुरानी तनख्वाह ही देने की पेशकश कर रहे थे. पीएचडी के बाद तनख्वाह क्यूँ बढ़नी चाहिए, ये उनकी समझ से परे था. अब आप ही बताइये, साढ़े तीन साल बाद आ रही थी, वो भी NIT से पीएचडी करके, भला पुरानी तनख्वाह पर क्यूँ काम करती?

स्कॉलरशिप की बढ़ी राशि से कुछ जमा किया था, 6-7 महीने तो ईएमआई के लिए इंतज़ाम था, पर उसके आगे नौकरी जरूरी थी. कई जगह अप्लाई किया, और कुछ जगह से पॉजिटिव रिस्पांस भी आया. फिर अपनी इस संस्था को ज्वाइन किया. उसके बाद अपनी गाड़ी सामान्य तरीके से चलती रही.

तीन साल बाद फ्लैट तैयार हो गया पर उस ज़मीन पर कुछ सरकारी स्टे लग गया था. उसे हटने में एक साल और लग गया. 2016 में फ्लैट मेरे नाम किया गया. किस्मत से मेरी चाची सास और जेठ जिठानी थे उस समय मेरे साथ और बड़ों के आशीर्वाद के साथ मैंने उस फ्लैट का रिबन कटा और उसमें प्रवेश किया.

 




बहुत बड़ी उपलब्धि थी ये मेरे लिए और क्यूँ न हो, कुछ नहीं से यहाँ तक, इतना बड़ा सपना पूरा हुआ था. फ्लैट हैण्ड ओवर बहुत अच्छे से तरीके से किया उनलोगों ने.



                                                                              



अब मैं एक फ्लैट की मालकिन बन गयी थी. पर कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुयी थी.

कुछ और बातें तो करने को रह ही गयी. शायद ये बातें आपको भी कुछ प्रेरणा दे.

जैसा कि मैंने शुरू में ही बताया कि मैंने फ्लैट में अलग से कुछ राशि जमा की थी पूल साइड फेसिंग फ्लैट और कवर्ड पार्किंग के लिए. पर जब मैंने फ्लैट की बालकनी से बाहर झाँका तो मुझे पूल की जगह क्लब हाउस की छत दिखाई दी. तिरछी गर्दन करके 45 डिग्री के कोण में देखो तो दूर पूल दिखाई देता. बस चली गयी इस मुद्दे को लेकर कि मेरे पूल साइड फेसिंग की राशि वापस करो. HR वालों ने थोथी दलील पेश करके हरसंभव प्रयास किया कि क्लब हाउस फेसिंग को पूल साइड फेसिंग बता सकें पर मुझे मूर्ख बनाने क़ी उनकी सारी कोशिशें बेकार रही. मैनेजमेंट के बड़े अधिकारी से मिली और फिर उन्होंने मेरी बात समझी. उन्होंने कहा कि पैसे वापस करना तो मुश्किल है पर उसके बदले में आप बताइये हम क्या कर सकते हैं. फिर उसके बदले में मैंने क्या करवाया पता है? ड्राइंग रूम और डाइनिंग रूम में फॉल्स सीलिंग.

एक और बात हुयी. मेरा किचेन मॉड्यूलर नहीं था. मुझे याद आया और जैसा मैंने शुरू में आपको भी बताया कि शुरुआत में प्रचार के समय जो लीफलेट बिल्डर ने बनवाया था, उसमें एक तिथि का तीन दिन का रेंज दिया हुआ था कि इस बीच में जो फ्लैट बुक करेगा उसे मॉड्यूलर किचेन फ्री बनाकर दिया जायेगा. किस्मत से इस लीफलेट को मैंने संभाल कर रखा हुआ था. अपनी बुकिंग राशि जमा करने की और बुकिंग की तारीख देखी. उसी बीच की थी. पुनः बात की बिल्डर से और फिर से सफल हुयी जो होना ही था क्यूंकि प्रूफ जो था मेरे पास. मॉड्यूलर किचेन भी बन गया मेरा.

तो अब मैं फ्लैट की मालकिन हो गयी थी. कितनी ख़ुशी हो रही थी इसका शब्दों में बयां मुश्किल है. पतिदेव भी गर्व कर रहे थे मुझपर.

लेकिन लोन तो बीस साल का लिया था, वो भी सिर पर से हटाना था. इतने साल इतनी राशि दे डाली थी पर लोन का आउटस्टैंडिंग बैलेंस तो बिलकुल कम होता दिख ही नहीं रहा था. मेरी बैंकर बड़ी बेटी ने कहा कि मूल राशि कम कटती है, ब्याज ज्यादा इसीलिए ऐसा हो रहा है. मूल बाद में ज्यादा कटना शुरू होगा. तो बस चुप चाप ऐसे ही सिलसिला चलता रहा.

इस बीच दो बार सरकार की नीति के अनुसार महिलाओं के लिए ब्याज दर कम होने पर ब्याज दर को 10.5% से 8.5% करवाया और फिर 7%

फिर 3 साल पहले मेरे छोटे भाई ने मुझे सुझाया, “क्यूँ नहीं तुम, जितना पैसा तुम्हारे पास बचता है, उसे लोन अकाउंट में जमा कर देती हो. ऐसे भी तुम्हें जमा खाता से क्या ब्याज मिलने वाला है. इससे अच्छा है, लोन जल्दी चुकाओ”.

उसकी बात दिमाग में पूरी तरह घर कर गयी. बैंक जाकर पता किया, समय पूर्व लोन की राशि जमा कर देने से कहीं कोई पेनाल्टी तो नहीं लगेगी. उत्तर मिला, “नहीं”.

अब घर की दाल रोटी तो चलानी नहीं थी. तो महीने के कुछ खर्च के बाद जो भी तनख्वाह बचती वो मैं लोन खाते में डाल देती. इससे हुआ ये कि बीस की जगह दस साल में मेरा लोन चुकता हो गया. 13 मार्च 2022 को सिर ऊँचा करके लोन देने वाले बैंक शाखा से “नो ड्यूज” का सर्टिफिकेट लिया और फिर 15 मार्च 2022 को हेड शाखा से जाकर अपने मकान के कागजात लिये. कुछ दिन बाद 7 अप्रैल 2022 को उसी गर्व से उठे हुए सिर के साथ रजिस्ट्री ऑफिस गयी और अपने फ्लैट का हस्तांतरण अपने नाम करवाया जो अब तक बैंक के पास था. सब खुद किया अपने बलबूते पर. उस दिन ख़ुशी के आंसू छलक आये थे, खुद पर विश्वास नहीं हो रहा था.

एक बड़ी अजीब सी बात थी, जब “नो ड्यूज” और फ्लैट के कागजात के लिये गयी तो दोनों जगह बैंक वालों ने तीन बार पूछा, “और कौन है जिसने आपके साथ लोन लिया”?  मैंने बार बार कहा, “मैंने”. उन्होंने याद दिलाया, “आपके हसबैंड भी तो होंगे न आपके साथ”.

क्यूँ आखिर क्यूँ?

क्या हम महिलाएं बिना किसी की मदद के कुछ नहीं कर सकते. ये पुरुष प्रधान मानसिकता आखिर कब बदलेगी?

बहुत ही भाव विह्वल होकर घर लौटी. पतिदेव के सामने शान से खड़ी हो गयी. उसी शान से कहा, “मैंने कर दिया, हो गया घर मेरे नाम, चुका दिया सारा लोन... और वो भी अपने बलबूते पर”.

कहना नहीं होगा कि पतिदेव भी मुझपर नाज़ कर रहे थे और उतना ही गर्व महसूस कर रहे थे. उन्होंने मेरी पीठ ठोकी और मुझे “लेडी विथ ऐन आयरन विल” का ख़िताब भी दिया.

 


मेरी छोटी बेटी जो उस समय हमारे साथ ही थी, वो भी भावुक हो गयी. बेटी ने इस उपलक्ष्य में एक बड़ी भी पार्टी दी. उसने जो बोला वो मेरे लिए एक अतुल्य स्मृति है.  अगर आप मेरे इस फेसबुक पोस्ट को देखें तो इसमें वो विडियो मौजूद है जो उसने कहा.

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=pfbid02J1KThn6Je4nwUm4LFmCnMRV2kTuaQtGQmvkJYuHR9sT2nHi73D6bMLA1aaiFqFwKl&id=1823404747

पापा आज होते तो अपनी बेटी पर बहुत गर्व कर रहे होते। मुझे पता है वो जहाँ भी हैं वहाँ से ही मुझे आशीर्वाद दे रहे होंगे।

3 दिन बाद ही मेरा साठवां जन्मदिन भी था. यानि कि इस उम्र में भी मैंने वो कर दिखाया था जो बहुत लोगों के लिये असंभव होगा. सच है “ मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये”. खुद पर विश्वास बहुत जरूरी है और खुद का साथ भी. फिर देखिये सपने कैसे पूरे होते हैं. मैंने भी तो पाया था अपना एक “अस्तित्व”.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 





Saturday, 12 September 2020

 


"पराकाष्ठा - द पॉजिटिव वाइब्स"



ये ब्लॉग मेरे बच्चों और मेरे सभी विद्यार्थियों को समर्पित है. उनके साथ के अनुभव ने ही मुझे इस मुकाम पर पहुँचाया और उन्हीं की बदौलत मैं इस ब्लॉग को ये शीर्षक दे पाई

प्रस्तुत ब्लॉग को मैं दो सवालों से शुरू करुँगी और इसके माध्यम से दो पहलुओं पर बात करना चाहूंगी.

  1. आपको अगर घर की चाभी किसी को देकर जाना हो तो किसे देकर जायेंगे?
  2.  क्यूँ?

 जाहिर है कि आप पहले प्रश्न के जवाब में कहेंगे – जिन्हें हम अच्छे से जानते हैं और दूसरे प्रश्न के जवाब में कहेंगे- क्यूंकि उनपर हमें भरोसा है.

आपका जवाब सही भी है. हम अपने घर की सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्हें ही तो सौंप सकते हैं जिनपर हमें पूरा भरोसा हो.

लेकिन अगर हम दूसरे पहलू पर गौर करें तो हम जब भी किसी परीक्षा या साक्षात्कार के लिए जाते हैं तो हमें हमेशा ही ऐसा लगता है कि हम रह जायेंगे और कोई दूसरा हमसे बाज़ी मार ले जायेगा. हम दूसरों को खुद से ज्यादा सक्षम समझते हैं और दिमाग में हमेशा यही होता हैं कि कोई और हमसे ऊपर होगा या हमारा चयन न होकर किसी और का चयन होगा. आखिर क्यूँ? ऐसे समय में परिस्थितियां विपरीत क्यूँ हो जाती हैं? हम उनपर ज्यादा विश्वास क्यूँ जताने लगते हैं, जिन्हें हम जानते तक नहीं? जन्म से लेकर हर एक उम्र तक हम चौबीस घंटे खुद के साथ रहते हैं, खुद को सबसे अच्छी तरह से जानते हैं, फिर सफलता की चाभी दूसरे के हाथ क्यूँ सौंपने लग जाते हैं. खुद पर भरोसा क्यूँ नहीं करते?

अंग्रेजी में कहते हैं: Believe in Yourself

फिर ये belief ऐसे समय में कहाँ चली जाती है?

चलिए मैं अपनी एक आपबीती सुनाती हूँ सिर्फ ये बताने के लिए कि अगर खुद पर भरोसा हो तो सबकुछ संभव है:

1999 के दिसम्बर में मेरे पतिदेव ऑस्ट्रेलिया के एक सरकारी दौरे से लौटे. बीच में लम्बा ले ओवर था सिंगापुर में. वहां से बच्चों के लिए कुछ इलेक्ट्रॉनिक म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स लेकर आये. भोपाल आकर सिंगापुर की तारीफ करते नहीं थक रहे थे. वहां की सुन्दरता, सफाई, नियम पालन, लोगों की जागरूकता, ईमानदारी और बहुत कुछ की. उनके मुँह से सिंगापुर की इतनी तारीफ सुनकर मैंने उनसे अनायास ही कहा, “मुझे भी ले चलिए न सिंगापुर”. जवाब कुछ ऐसे मिला, “तुमने तो मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया. इतने पैसे मेरे पास होते तो तुम सबको ले जाता. मैं तो सरकारी खर्चे पर गया था”. उस समय न छठे पे कमीशन वाला वेतनमान लगा था न ही कुछ बचत हो पाती थी. उनका मायूस चेहरा देखकर बस मैंने यूँ ही उस दिन कह दिया था, “चिंता मत कीजिये, अब मैं आगे आपसे कभी ऐसा नहीं बोलूंगी. पर सिंगापुर जाउंगी जरूर और अब ऊपर वाला मुझे सिंगापुर ले जायेगा”. बात आई गयी हो गयी. यहाँ मैं अपनी तारीफ में कुछ शब्द बोल दूं कि मैं बहुत ही नॉन-डिमांडिंग बीवी रही हूँ.

2004 में नवभारत अख़बार में एक प्रतियोगिता का ऐलान हुआ. RANK & BOLT अवार्ड का. RANK अवार्ड विद्यार्थियों के लिए और BOLT अवार्ड शिक्षकों के लिए. BOLT यानि ब्रॉड आउटलुक लर्नर टीचर अवार्ड. ये प्रतियोगिता एयर इंडिया और सिंगापुर टूरिज्म बोर्ड के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित की जाने वाली थी. सभी ऐसे लोगों के लिए, जो शिक्षण के कार्य से जुड़े हों-चाहे वो स्कूल में हो, कॉलेज में या फिर कोचिंग इंस्टिट्यूट में और चाहे वो टीचर हों, प्रोफेसर हों, डायरेक्टर, प्रिंसिपल, रजिस्ट्रार या फिर वाइस-चांसलर. सभी इसमें हिस्सा ले सकते थे. दो स्तर थे इसके. जिला स्तर और राज्य स्तर. अगर आप जिला स्तर के विजेता होते हैं तो आपको शील्ड और सर्टिफिकेट मिलेगा और अपने राज्य के सभी जिला स्तर के विजेताओं से मुकाबला करके राज्य स्तर पर जीतने का मौका भी. और अगर आप राज्य स्तरीय विजेता घोषित होते हैं तो अन्य पुरस्कारों के साथ साथ अपने राज्य के टीचर एम्बेसडर के रूप में एयर इंडिया और सिंगापुर टूरिज्म बोर्ड की ओर से सिंगापुर के 4 दिनों के एम्बेसडोरिअल विजिट का मौका भी मिलेगा. इस प्रतियोगिता के कर्ता-धर्ता श्री सुब्रोतो घोषाल थे जो एयर इंडिया से जुड़े थे. इसके पीछे की इतनी बड़ी सोच भी उन्ही की थी. सौभाग्य से उस समय मैं कार्मल कॉन्वेंट स्कूल में कंप्यूटर साइंस में पीजीटी टीचर थी. इस विज्ञापन को देखते ही मुझे साढ़े चार साल पहले की कही अपनी बात याद आ गई. ईश्वर ने रास्ता दिखा दिया था, मुझे सिंगापुर ले जाने का. वरना किसी और जगह का नाम या कोई और पुरस्कार भी हो सकता था. मैंने कहा – “मैं जा रही हूँ सिंगापुर”. घर वालों ने कहा – “एक ही को जाने को मिलेगा, सिर्फ राज्य स्तरीय विजेता को. फिर भी तुम इतनी कॉंफिडेंट हो?” प्रत्युत्तर में मैंने कहा, “मैं भी तो एक ही हूँ फिर मैं ये क्यूँ सोचूँ कोई और “एक” इसका विजेता होगा? मैं क्यूँ नहीं?”

इतना बड़ा पुरस्कार था – सिंगापुर जाना, वहां पांच सितारा होटल में ठहरना, नाश्ता खाना, सिंगापुर के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों का भ्रमण.... इसकी कीमत कम से कम डेढ़ दो लाख तो आंकी ही जा सकती थी. सम्मान मिलेगा वो अलग. ज़ाहिर है इतनी बड़ी प्रतियोगिता थी तो कठिन भी उतनी ही थी. जिला स्तर के लिए लिखित मुकाबला था जिसमें साधारण प्रश्न न होकर आपकी शिक्षण के अनुभव से सम्बंधित गूढ़ प्रश्न थे जिससे आपके और शिक्षक के रूप में आपकी भूमिका के बारे में पूरी एनालिसिस हो जाये. कहना नहीं होगा कि प्रश्न बहुत टेढ़े थे और बहुत ही सच्चा जवाब चाहते थे. कुछ समय दिया गया था प्रश्नों के जवाब भेजने का. लिखित जवाब के आधार पर कुछ प्रतियोगियों का चयन किया गया जिन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाया गया, जिनमें सौभाग्य से मैं भी थी. मेरा साक्षात्कार करीब 1 घंटे तक चला. मुझे और मेरे ज्ञान और अनुभव को पूरा खंगाला गया. कहीं भी कोई कसर नहीं रखी गयी आपको उड़ने देने से रोकने में. आप कुछ भी झूठा नहीं दर्शा सकते थे. साक्षात्कार के बाद मैं संतुष्ट थी. मेरा भरोसा अब भी डिगा नहीं था. मेरा बच्चों को पढ़ाना, उनके साथ का अनुभव, उनके मनोविज्ञान को समझने का अनुभव और खुद भी शिक्षण के साथ आगे की पढाई से जुड़े रहने का अनुभव पॉजिटिव रूप से इस साक्षात्कार में काम आया. मेरे इस भरोसे ने रंग दिखाया. मैं भोपाल से “विनर” चुनी गयी. अब मध्य प्रदेश के सभी जिला स्तरीय विजेताओं में से एक राज्य स्तरीय विजेता चुना जाना था. उसी भाग्यशाली विजेता को सिंगापुर जाने का मौका मिलने वाला था. लेकिन अब कोई लिखित परीक्षा या साक्षात्कार नहीं होना था बल्कि सभी जिला स्तरीय विजेताओं में से जिसके भी सबसे अधिक अंक आये थे उसे ही राज्य स्तरीय विजेता घोषित किया जाना था.  मेरा खुद पर भरोसा अब भी कायम था और फिर से इस भरोसे ने रंग दिखाया. मैं राज्य स्तरीय विजेता चुनी गयी. इसकी सूचना हमें श्री आशीष जोशी जी से मिली, जो नवभारत से जुड़े थे और  मध्य प्रदेश से इस प्रतियोगिता का संचालन कर रहे थे. मेरा सिंगापुर जाने का सपना सच होने वाला था. ईश्वर ही ले जा रहा था मुझे, एयर इंडिया और सिंगापुर टूरिज्म बोर्ड को माध्यम बना कर. उस समय की अपनी ख़ुशी को शब्दों में बांधना मुश्किल है.

जिला स्तरीय विजेता का कम्युनिकेशन 

राज्य स्तरीय विजेता का कम्युनिकेशन

अखबार में नाम

मेरे लिए ये सिर्फ सिंगापुर की यात्रा ही नहीं थी, बल्कि पहली हवाई यात्रा भी थी. वो भी सिर्फ देश के अन्दर नहीं, बल्कि विदेश में भी.

पहली बार पासपोर्ट बनवाया, वो भी तत्काल. टिकट का तो कुछ करना नहीं था, टिकट के साथ साथ वीसा का इंतजाम भी एयर इंडिया वालों ने करवाया. सिंगापुर में किन नियमों का पालन करना है, उसकी सूची और सारा कार्यक्रम और उसकी रूपरेखा हमें भेजी गयी. मुझे भोपाल से मुम्बई जाना था और भारत के सभी राज्यों के विजेताओं को अपने अपने राज्य से मुम्बई या चेन्नई आना था. वहां से हमें सिंगापुर के लिए प्रस्थान करना था. बचपन से तमन्ना थी मुम्बई भी देखने की, क्यूंकि मैं फिल्मों की बहुत दीवानी थी और मुम्बई फिल्म कलाकारों का बसेरा था. वो तमन्ना भी अभी ही पूरी होने वाली थी. कहते हैं न, ईश्वर जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है. बहुत सारे नए अनुभव होने वाले थे. सबसे बड़ा अनुभव था अकेले विदेश यात्रा का.

अक्टूबर का महीना था, तारीख थी 5. भोपाल से शाम की फ्लाइट से मैं दो घंटों में मुंबई पहुँच गयी. हम सभी वहां एक तीन सितारा होटल में ठहरे. हम तीस विजेता थे और साथ साथ हर राज्य से एक एक जर्नलिस्ट भी जो हमारी पूरी यात्रा और अनुभव को कवर कर सकें. हमारे साथ श्री आशीष जोशी जी थे. हम सभी को एयर इंडिया की तरफ से जैकेट और आईडी कार्ड दिया गया जिसे हमें पूरे भ्रमण के दौरान पहने रखना था, साथ साथ कुछ हिदायतें भी जिसका सख्ती से पालन हमें सिंगापुर में करना था. अगले दिन सुबह 6 बजे मुंबई से सिंगापुर की फ्लाइट थी.  

हमारी फ्लाइट इटेरिनरी

सुबह करीब 3 बजे ही हम इंटरनेशनल एअरपोर्ट पहुँच गये. हवाई यात्रा के साथ साथ सिक्यूरिटी चेक, इमीग्रेशन, करेंसी एक्सचेंज सभी का अनुभव बिलकुल नया था. मुम्बई से सिंगापुर की फ्लाइट बहुत ही बड़ी थी. बहुत ही आरामदायक. हम एयर इंडिया के मेहमान थे, विजेता भी और अपने अपने राज्य के एम्बेसडर भी इसीलिए फ्लाइट में हमारा बहुत ही अच्छा स्वागत हुआ. हमारे बारे में उनके पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर उद्घोषणा की गयी. यात्रा के दौरान हमें तीन-तीन करके कॉकपिट में भी बुलाया गया और विमान के उड़ान के कंट्रोल्स के बारे में बताया गया. जब मुझे बुलाया गया तब हम भारत के उस समय के दक्षिणतम बिंदु इंदिरा पॉइंट के ऊपर से उड़ रहे थे.

कॉकपिट में, इंदिरा पॉइंट के ऊपर उड़ते हुये

फ्लाइट में बीच में एक बड़ा सा स्क्रीन लगा था. उसपर हमने “गायब” पिक्चर भी देखी. मुंबई से सिंगापुर की करीब सात घंटे की उड़ान थी और सिंगापुर का समय भारतीय समय से ढाई घंटे आगे. सिंगापुर एक अलग ही दुनिया थी. वहां का चांगी एअरपोर्ट तो ऐसा लग रहा था मानों हम स्वर्ग में उतर गये हों. सिंगापुर यात्रा का वर्णन किसी और ब्लॉग में करुँगी. अभी विषय से नहीं भटकते हैं. 


 
सिंगापुर

सिंगापुर का अनुभव बहुत ही अच्छा था. पतिदेव ने जो भी कहा था सब अक्षरशः सत्य था. हम वहां से 9-10 अक्टूबर की दरमियानी रात को 2 बजे मुंबई लौटे. फिर से उसी होटल में ठहरे. हमारे पास 10 तारीख को दोपहर तक का समय था क्यूंकि उस दिन शाम में भोपाल के लिए फ्लाइट थी. उस दिन मुम्बई घूमने का प्लान बनाया और घूमें भी. अमिताभ बच्चन का बंगला तो देखना ही था और उसके सामने फोटो खिंचवा कर बरसों का सपना भी पूरा किया.

AGM SBI की ओर से टेस्टीमोनियल

सिंगापुर से लौटने के बाद पुरस्कार वितरण के लिए भव्य आयोजन किया गया. सभी जिला और राज्य स्तरीय विजेता और उप विजेता को पुरस्कार मिलना था. मुझे आज भी याद है कैसे मैं जर्नलिस्ट के बीच में घिर गयी थी. मेरा परिवार और मेरी प्रिंसिपल सिस्टर ऐन्सिला भी वहां आई थी. मेरा स्थान डायस पर था, एक वीआईपी की तरह और मुझे सिंगापुर के अपने अनुभव को साझा करने का आमंत्रण भी मिला था. अनुभव साझा करने के दौरान मैंने पोडियम के सामने राखी एक बहुत बड़ी ट्रॉफी देखी. उसकी चमक आँखों में बस गयी. पता किया तो बताया गया, ये अगले साल इसी प्रतियोगिता के नेशनल विनर को मिलेगा. यानि.. ओह्ह.. इस साल तो ये प्रतियोगिता सिर्फ राज्य स्तर तक ही थी. मतलब हम तो नेशनल विनर हो ही नहीं पाएंगे. सोचने लगी, इस साल क्यूँ भाग लिया प्रतियोगिता में, अगले साल ही ले लेती. पर मुझे क्या पता था ऐसा कुछ होने वाला है.

राज्य स्तर विजेता होने की और सिंगापुर जाने के आपने अरमान पूरे होने की ख़ुशी पर यह सोच हावी हो गयी. अब अपने आप को राष्ट्रीय स्तर पर साबित करना और पुरस्कार जीतना ध्येय हो गया. पहले ईश्वर पर अपनी आशा को पूरा करने का दायित्व छोड़ा था अब खुद पर विश्वास और कुछ कर दिखाने का जज्बा कुलांचे भरने लगा. यही है इंसान का असली स्वरुप. जितना मिले उतना कम है. हमेशा और पाने की इच्छा एवं और ऊँचाइयाँ छूने की आकांक्षा हिलोरें लेती रहती है. पर यही तो है वो जो हम में नयी उर्जा का संचार करके हमें नया मुकाम पाने को प्रेरित भी करती है.

राज्य स्तरीय अवार्ड और मेरा संभाषण-इसी समय मैंने राष्ट्रीय पुरस्कार की ट्रॉफी देखी
आप भी देखिये

कोशिश करने में क्या हर्ज़ है, लिहाजा मैंने भी एयर इंडिया के सबसे ऊँचे पद पर आसीन अधिकारी को एक पत्र लिख डाला. उनसे विनती की कि अगले साल के नए राज्य स्तरीय विजेताओं के साथ हमें भी राष्ट्रीय स्तर के प्रतियोगिता में शामिल होने का मौका दिया जाये. ये भी लिखा कि “वर्ना हम अपने आप को कोसते रहेंगे कि हमने इस साल इस प्रतियोगिता में भाग क्यूँ लिया. जो हुआ उसमें हमारी क्या गलती थी भला?”

मैंने एयर इंडिया को जो पत्र लिखा

कहते हैं न “कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती”. हमारी भी नहीं हुयी. हमारी बात सिर्फ एक बार के लिए मान ली गयी. एक सामाजिक कार्य भी हो गया यानि सिर्फ मेरे ये एक कदम उठाने के कारण सभी 30 विजेताओं का भला हो गया.

एयर इंडिया का जवाब


मुझसे कन्फर्मेशन

लेकिन अब प्रतियोगिता और भी कठिन थी. इसीलिए कि अब ये राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता थी और इसीलिए भी क्यूँकि अब हमें 30 से नहीं बल्कि 60 प्रतियोगियों से प्रतियोगिता करके अपने आप को साबित करना था-30 अपने साथ वाले और 30 नये.

लेकिन 2005 में प्रतियोगिता नहीं हो पाई. मुंबई में भयंकर बाढ़ के कारण. इसीलिए हमें 2 साल का इंतज़ार करना पड़ा यानि 2006 तक.

प्रतियोगिता का स्वरुप वही था. लेकिन राष्ट्रीय स्तर के लिए हमें फिर से एक और राउंड के लिखित परीक्षा और साक्षात्कार में भाग लेना था. इस बार प्रश्नों का स्तर बहुत ही कठिन था. पता नहीं किसने प्रश्न बनाये थे. स्कूल कॉलेज में होते तो कह देते – सिलेबस के बाहर. लेकिनं यहाँ तो “ओखल में सिर डाल दिया था तो मूसल से क्या डरना” वाला मामला था.

बहुत ध्यान से, सोच समझ कर सच्चाई से उत्तर देना था. जितना हो सकता था सोचा और उत्तर लिख कर भेजा. किस्मत से इस बार फिर साक्षात्कार के लिए चयन हो गया. किसी ने जादू की छड़ी घुमाई थी. ईश्वर काफी प्रसन्न था. और तो और मुंबई दर्शन की जो चाहत पिछली बार पूरी हुयी थी, इस बार और भी बड़े रूप में पूरी होने वाली थी क्यूंकि इस बार साक्षात्कार के लिए हमें मुंबई बुलाया गया था.

होटल इंटरकांटिनेंटल ग्रैंड में ठहरने का इंतजाम था. सिंगापुर के पांच सितारा होटल में तो ठहरी ही थी और वो मेरा पहला अनुभव था पांच सितारा होटल में रुकने का. हाँ, एक दो बार डिनर जरूर किया था ऐसे होटल में. इस बार ये भारत का पांच सितारा होटल था और मैं यहाँ दो दिनों तक रुकने वाली थी. 13000/- एक दिन का रूम चार्ज बताया गया था. सभी सुविधाओं से परिपूर्ण. एक रूम में ही टीवी, माइक्रोवेव, फ्रिज, कोल्ड ड्रिंक्स, फ़ोन, फल, स्नैक्स, चाय, कॉफ़ी, बाथरोब, प्रेस, शैम्पू, टूथब्रश, टूथ पेस्ट, बॉडी वाश, तौलिये, मॉइस्चराइजर, गोल्फ स्टिक, स्लिपर्स, कितनी सुविधाएं थी. खुद के पैसे से कहाँ से होता ये सब? अभी तक मूवीज में ही देखी थी इतनी शानो-शौकत. ईश्वर की तरफ से एक तरह का राजयोग ही था ये.

हमारा साक्षात्कार एयर इंडिया बिल्डिंग में था. उस समय ये मुंबई का एक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हुआ करता था. मरीन ड्राइव के सामने. पहले तो हमें वहां के सबसे ऊंचे माले की सैर करायी गयी और वहां से मरीन ड्राइव दिखाया गया. फिर अपने अपने फ्लोर पर भेज दिया गया, जहाँ साक्षात्कार होना था.

कई पैनल्स बने थे. प्रत्येक पैनल 4 लोगों का. सभी पैनलिस्ट अपने अपने क्षेत्र के नामी गिरामी हस्ती. एक पैनल में श्री अमीन सयानी भी थे जिनकी बिनाका गीत माला सुनकर हम बड़े हुए थे. उनकी आवाज़ और बोलने की शैली के कायल थे हम सब. लेकिन मुझे वो पैनल नहीं मिला था.

ये साक्षात्कार भी करीब एक घंटे चला. बहुत कुछ पूछा गया, बहुत कुछ बोला भी हमने. इस बार सिंगापुर के बारे में भी सवाल थे कि कैसे और क्यूँ उस जगह ने हमें प्रभावित किया था. हमें वहां के न्यू वाटर प्लांट और किस तरह से सिंगापुर अपने पानी के आभाव को संभालता है, कैसे पानी और कचरे के मामले में रेड्यूस, रीयूज़ और रीसायकल को अपनाता है, वहां के सिविक सेंस और नियम पालन के बारे में बोलने का मौका मिला. पैनलिस्ट के अनुभवों को सुनने का भी मौका मिला और छोटी छोटी चीजों से कैसे बड़ी बड़ी सीख ली जा सकती है इसका अनुभव मिला. साक्षात्कार के बाद सकारात्मकता का ही अनुभव हो रहा था.

परिणाम निकला. 7 लोग चुने गये थे नेशनल अवार्ड के लिए. और इन विजेताओं में मैं भी शामिल थी नेशनल रनर अप के रूप में. इस बार भी इसकी सूचना हमें श्री आशीष जोशी जी से ही मिली. ये भी बहुत ही सुखद सूचना मिली कि हमें ये पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी के हाथों मिलेगा और उस समय हमारे राष्ट्रपति थे हम सबके चहेते, पूजनीय, एक प्रख्यात वैज्ञानिक और एक उत्कृष्ट शिक्षक डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम.

दिल गदगद था. सबकुछ बड़ा अच्छा लग रहा था. कुछ वो मिल गया था जिसके बारे में कभी सोचा नहीं था और उनसे मिलने वाला था जो अकल्पनीय था. जाहिर है इस पुरस्कार को मिलने में समय लगना था क्यूंकि राष्ट्रपति जी से समय मिलना भी एक कठिन कार्य था.

18 जुलाई 2007 को राष्ट्रपति के रूप में महामहिम डॉ कलाम के कार्यकाल का आखिरी दिन था क्यूंकि 19 जुलाई को प्रेसिडेन्शिअल इलेक्शन था. और हमें तारीख मिली 17 जुलाई 2007 की. यानि कार्यकाल समाप्ति के ठीक एक दिन पहले. बहुत ही भाग्यशाली थे हम सभी. लेकिन एक और साल बीत गया था इस बीच.

पुरस्कार समारोह विज्ञान भवन, नयी दिल्ली में होना था. इस बार फिर पांच सितारा होटल में रुकने का सौभाग्य मिला. इस बार होटल था सेंटॉर, नयी दिल्ली.

हमें 7 पास भी दिए गये थे अपने परिवार के लोगों के लिए, जो इस फंक्शन को अटेंड करना चाहते थे. पहले से ही जानकारी ले ली गयी थी और पास पर उनके नाम थे. मेरे पतिदेव डॉ सुहास कुमार, मेरी बड़ी बेटी सुश्री स्वाति सुधा, मेरे जेठ डॉ संगीत कुमार, मेरी जिठानी श्रीमती रीता कुमार और मेरा सबसे छोटा भाई गौतम कुमार सिन्हा राष्ट्रपति के हाथों मेरे इस पुरस्कार ग्रहण के साक्षी बने. छोटी बेटी शान के कुछ अलग महत्वपूर्ण कमिटमेंट थे. वो नहीं आ पाई पर उसकी कमी बहुत खली क्यूंकि ऐसे मौके बार बार नहीं आते.

विज्ञान भवन में बहुत ही कड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी. ज़ाहिर सी बात थी, देश के सर्वोच्च नागरिक, महामहिम राष्ट्रपति पधारने वाले थे. हमारे मोबाइल फ़ोन, कैमरा सब ले लिए गये थे. कहा गया कि फोटो ऑफिशियल फोटोग्राफर ही खींच सकते हैं. परिवार वालों को अन्दर बैठने का स्थान बताया गया. हमारे लिए सीट नियत थी. हमें वहां बिठा कर दो तीन बार प्रोग्राम का रिहर्सल करवाया गया. किस क्रम में और किस तरह से स्टेज पर जाना है, जब एक स्टेज पर पुरस्कार ग्रहण करने जायेगा तो उसके पीछे वाला कितनी दूरी पर रुकेगा, किस तरह से पुरस्कार ग्रहण करना है, उसके बाद स्टेज से उतरकर कहाँ बैठना है इत्यादि. ये भी बताया गया कि इसके बाद हमारे और परिवार वालों के लिए हाई टी का इंतज़ाम है उनके साथ. सख्त हिदायत दी गयी कि राष्ट्रपति जी से कोई बात करने की कोशिश नहीं करेगा. उनका समय बहुत कीमती है. हम सांस थामे उस घड़ी का इंतज़ार कर रहे थे जब हमारी प्रेरणा, हमारे पूजनीय राष्ट्रपति जी हमारे बिलकुल सामने होंगे. दिल की धड़कन तेज़ हो गयी थी. इतनी हिदायतों के बाद थोड़ा डर भी लग रहा था कि कहीं कोई चूक न हो जाये. इतनी बड़ी ख़ुशी थी, राष्ट्रीय पुरस्कार और वो भी राष्र्ट्रपति के हाथों, ऊपर से डॉ कलाम के हाथों मिलने जा रहा था. अपने आप पर गर्व भी हो रहा था वो भी दुगना, एक तो विजेता होने का और दूसरा इस बात का कि मैंने ही तो पत्र लिखा था हमें भी इस प्रतियोगिता में शामिल करने के लिए. अंदर कुछ उथल पुथल सी भी हो रही थी-डर, गर्व और इस अथाह ख़ुशी के सम्मिश्रण से.

विज्ञान भवन में पुरस्कार पाने का इंतज़ार करते हुए 

राष्ट्रपति जी बिलकुल नियत समय पर पधारे. सीधे, सरल, बिना किसी आडम्बर के वो हमारे सामने थे. सब कुछ अविश्वसनीय लग रहा था. प्रोग्राम शुरू हुआ. पुरस्कार ग्रहण करने वालों में सबसे पहला नंबर मेरा ही था. सहमते हुए स्टेज पर पहुँची. और ये क्या, पुरस्कार देते हुए कलाम जी ही मुझसे बात करने लगे, मेरे बारे में पूछने लगे और हमारी टीचिंग स्ट्रेटेजी के बारे में भी. कहने लगे वो हम गुरुओं का बहुत सम्मान करते हैं, ख़ास करके महिलाओं का. अब वो बातें कर रहे थे, सवाल पूछ रहे थे और मैं मंत्रमुग्ध होकर उन्हें जवाब दे रही थी, बहुत ही आह्लादित थी. शुरुआत उनकी तरफ से हुयी थी मैंने थोड़े ही पहल की. इसीलिए मैंने किसी भी हिदायत की अवहेलना नहीं की थी. और फिर ईश्वर मेहरबान था, तो इंसान की क्या बिसात. मैं बिलकुल मशगूल थी उनके प्रश्नों का उत्तर देने में और उन्हें ही देख रही थी(फोटो 1) और ये उन्होंने नोटिस किया. बहुत ही अच्छा लगा जब उन्होंने कहाँ “don’t just keep on looking this side, face towards the camera too. Otherwise you will miss the photograph”.(फोटो 2 और 3) कितना ध्यान था उन्हें और ये मालूम भी था कि हमें उनके साथ फोटो खिंचवाने की कितनी चाहत होगी. मैंने फोटोग्राफर की ओर देखा और “क्लिक”. एक बहुत ही यादगार फोटो खिंच गयी(फोटो 4).

फोटो 1

फोटो 2 

फोटो 3

फोटो 4

पुरस्कार स्वरुप हमें एक बड़ी सी ट्रॉफी और एक बहुत ही खूबसूरत सर्टिफिकेट दिया गया. जिनके हाथों ये सब मिला वो खुद अपने आप में एक बहुत ही बड़ा और अनमोल पुरस्कार था.

मुझे याद है, स्टेज पर मैंने उनके साथ 4-5 मिनट बिताये होंगे. वैसे पुरस्कार लेकर निकल आने में सिर्फ 30 सेकंड का समय लगता है. मेरे बाद शायद ही किसी को इतना समय मिला हो उस दिन उनके साथ. अगर आम रूप में कभी उनसे उतनी ही देर बात करना चाहती, तो शायद अपॉइंटमेंट लेने के लिए ही एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ जाता और उसके बाद भी अपॉइंटमेंट मिलता या नहीं उसकी भी कोई निश्चितता नहीं थी.

पुरस्कार समारोह और विज़न 2020 पर उनके विचारों के बाद हमें उनके साथ हाई टी के लिए जाना था. अंग्रेजी में कहावत सुनी थी “born with a silver spoon” और हिंदी में एक टंग ट्विस्टर भी “चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चांदनी चौक पे चांदी के चम्मच से चटनी चटाई”. और यहाँ हाई टी में सिर्फ चांदी के प्लेट्स, चम्मच और सर्विंग ट्रे ही दिख रहे थे. लेकिन सभी कुछ का स्वाद लिया जा सके ये मुमकिन ही नहीं था क्यूंकि स्नैक्स की वैरायटी तो इतनी थी कि पूछिए ही मत. बहुत ही यादगार था वो दिन, बहुत ही खुशनुमा और ज़िन्दगी की एक पराकाष्ठा, जीवन का उत्कर्ष. जहाँ पहुँचने की चाहत हर किसी को होती है. वो पा लिया था हमने. ईश्वर का एक वरदान. ईश्वर ने मेरी वो बात रख ली थी –“अब ऊपर वाला मुझे सिंगापुर ले जायेगा”. 

रात में छोटे भाई गौतम ने प्रेसिडेंट का वेबसाइट देखा. राष्ट्रपति के साथ मेरी तस्वीर सबसे पहले थी उसमें, वही तस्वीर जिसके लिए कलाम जी ने मुझे फोटोग्राफर को देखने को कहा था. वो लिंक दे रही हूँ आप भी देखिये.

http://abdulkalam.nic.in/sp180707.html

बहुत रात हो रही थी पर गौतम तुरंत उस तस्वीर को पेन ड्राइव में लेकर अपनी एक जान पहचान के स्टूडियो वाले के पास गया और आधी रात में स्टूडियो खुलवा कर उस तस्वीर का प्रिंट निकलवा कर लाया. 18 जुलाई को मेरा केंद्रीय विद्यालय में पीजीटी टीचर के पद के लिए साक्षात्कार था और ज़ाहिर सी बात थी कि ये तस्वीर उस साक्षात्कार के लिए एक मील का पत्थर साबित होने वाली थी. वैसे आपको बता दूं कि केंद्रीय विद्यालय के उस साक्षात्कार के बाद जो परिणाम घोषित हुआ उसमें मेरी ऑल इंडिया रैंकिंग 33 थी; 800 लोगों के बीच जिन्हें चुना गया था और फीमेल कैंडिडेट में मैं नवमें स्थान पर थी यानि कि मेरिट में.

आप सोच रहे होंगे कि फिर मैंने केंद्रीय विद्यालय की सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी क्यूँ नहीं ज्वाइन की. उसकी भी एक कहानी है, बताऊँगी लेकिन किसी और ब्लॉग में.

अभी वापस लौटते हैं. देखते हैं इस पूरी प्रतियोगिता के दौरान क्या हुआ.

8 हवाई यात्रा, सिंगापुर विजिट, 3 बार पांच सितारा होटल में रुकने का मौका, जिला विजेता पुरस्कार, राज्य विजेता पुरस्कार, राष्ट्रीय पुरस्कार, राष्ट्रपति के हाथ से पुरस्कार, उनसे बात करने का मौका, उनके साथ हाई टी, उनके वेबसाइट पर मेरी फोटो, लगभग सभी अख़बारों में हमारे ऊपर लेख, टीवी पर प्रोग्राम, कई साक्षात्कार, यानि कि अनायास प्रसिद्धि. सचमुच हम एकाएक मशहूर हो गये थे.

मैं इस ब्लॉग का समापन गोल्डा मायेर की इन पंक्तियों से करना चाहूंगी:

“Trust yourself. Create the kind of self that you will be happy to live with all your life. Make the most of yourself by fanning the tiny inner sparks of possibility into flames of achievement”

और आप सभी से कहना चाहूंगी:

Aspire to Inspire before you Expire






टीवी, वेबसाइट और अखबार में नाम