Wednesday, 31 July 2019

पैदल से इग्निस तक

इग्निस की चाभी मेरे हाथों में 


पैदल से इग्निस तक

शादी के बाद जून 1985 में मैं मध्य प्रदेश के एक शहर सिवनी आ गयी थी. पतिदेव एक कड़क ऑफिसर थे, समय के एक एक मिनट के पक्के और पूरी तरह नियम पालन करने वाले. बात बात में सरकारी नियम ले आते. जैसे अगर कहीं जाने को गाड़ी मांगो तो कहते “सरकारी गाड़ी परिवार के घूमने के लिए नहीं होती. हाँ अगर मैं किसी सरकारी काम से कहीं जा रहा हूँ और रास्ते में तुम्हें कुछ काम करना हो तो चल सकती हो”. हमारी अरेंज्ड मैरिज थी. इनको मैं बिलकुल नहीं जानती थी. बस समझने की कोशिश कर रही थी इसीलिए मैं चुप रह जाती. बचपन और कॉलेज के दिनों में खूब पैदल चली थी. पापा ने भी आदत लगायी थी. इसीलिए जहाँ तक हो सकता पैदल चलती या फिर रिक्शा लेती. धीरे धीरे मैं आसपास के लोगों और दुकानदारों में अच्छी खासी मशहूर हो गयी कुछ इस तरह कि वो मेरे बारे में जब बात करते तो बोलते “ अच्छा वो डी एफ ओ की बाईसाहब जो पैदल घूमती हैं?”

ऐसे ही करीब डेढ़ साल बीत गये. मेरी बड़ी बेटी स्वाति अब हमारी गोद में थी. हमारे यहाँ फारेस्ट ऑफिसर्स की वाइव्स का लेडीज क्लब था जिसमें महीने में दो दिन दोपहर में हम लेडीज किसी एक के घर में मिलते, कुछ गेम खेलते, अच्छे अच्छे पकवानों का आनंद उठाते और शाम में ऑफिस का टाइम ख़त्म होने से पहले घर आ जाते.

एक ऐसे ही दिन की बात है. उस दिन तो हद ही हो गयी. दिन में मुझे क्लब जाना था. एक बाई रखी थी मैंने जो स्वाति को संभालने में मेरा साथ दे सके. सुबह 10 से शाम 5:30 बजे की उसकी ड्यूटी रहती. पतिदेव लंच पर आये और उनके जाने के बाद हम भी करीब 3 बजे क्लब के लिए निकले. बाई ने स्वाति को संभाला हुआ था और मैंने स्वाति के सामान को. हम चले जा  रहे थे. एकाएक एक जीप हमारे पास आकर रुकी. उसमें से आवाज़ आई “भाभी जी आप पैदल क्यूँ जा रही हैं, आईये न जीप में बैठ जाईये”. पलट कर देखा.. हमारी ही जीप, हमारा ही ड्राइवर और जीप की सवारी किसी और फॉरेस्ट ऑफिसर की बीवी कर रही थी और मैं पैदल चली जा रही थी. हमारी ही जीप में बैठने का निमंत्रण हमें गैरों के द्वारा दिया जा रहा था. ड्राइवर चुपचाप देख रहा था. मेरा तो गुस्सा सातवें आसमान पर था. मैंने साफ़ साफ़ मना कर दिया. पर फिर मेरा क्लब में एक एक पल कैसे गुजरा होगा इसका अंदाजा आप सहज ही लगा सकते हैं. गुस्सा तो बहुत तेज था ही, मैं स्वयं को बहुत अपमानित भी महसूस कर रही थी और तकलीफ भी बहुत हो रही थी मुझे. कहना नहीं होगा कि उस दिन मैं कितनी बेसब्री से अपने पतिदेव के घर लौटने का इंतज़ार कर रही थी और फिर घर पर कैसा घमासान हुआ ये भी कहने की जरूरत नहीं. इन्हें देखते ही मैं उबल पड़ी थी. इन्होने कहा “अब मेरे सहकर्मी की बीवी ने मुझे फ़ोन करके कहा तो मैं कैसे मना करता” और मेरा तर्क था कि “अगर नियम तोड़ना था तो घरवाले के लिए तोड़ते नहीं तो नियम पर कायम रहते चाहे वो कोई भी हो”. अब ये मैं आप पर छोडती हूँ कि आप तय करें कि कौन सही था या कौन ग़लत पर मैंने उस दिन से ठान लिया कि अब मैं इनसे गाड़ी के लिए कभी नहीं कहूँगी.

सिवनी के बाद हमारा ट्रान्सफर कुछ महीनों के लिए रायपुर हुआ और फिर 1991 में हुई देहरादून की डेप्युटेशन पोस्टिंग. इनके नियम अपनी जगह पर कायम थे और मेरी ज़िद भी. हमारा घर वसंत विहार के एकदम आखिरी छोर पर था और घर के पीछे था एक चाय बगान जहाँ हिरण और जंगली सूअर खूब घूमते. घर से मेन रोड करीब 2 किलोमीटर पड़ता था. वहाँ से शहर जाने का साधन ‘विक्रम’ मिलता. हमारे घर की तरफ ही ITBP का कैंपस था. शहर से वहां के लिए बस आती थी जो वसंत विहार से घूमते हुए वापस जाती थी पर तभी जब उसे ITBP की कोई सवारी मिले यानि उसका कोई नियत समय नहीं था. देहरादून पहुँचने के दो महीने के अन्दर ही छोटी बेटी शान का जन्म हुआ था और उसे दो बार निमोनिया हुआ. एक बार तो उस समय जब पतिदेव विदेश गए थे. उस समय अस्पताल जाने के लिए कोई साधन न मिलने के कारण मुझे कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा ये शब्दों में बयाँ करना बहुत मुश्किल है. तब एक बार ख्याल आया कि एक दो पहिया वाहन लिया जाये. बजाज का एक स्कूटर घर पर था लेकिन मुझे सड़क पर गाड़ी चलाने के नाम से ही डर लगता था. साथ साथ वो भारी भी बहुत था और मैं अंडरवेट-मात्र 39 किलो की. गियर ऑपरेट करना एक और मुसीबत वाली चीज़ थी. इसीलिए बात आई गयी हो गयी. फिर कुछ दिनों बाद मैंने कंप्यूटर क्लासेज ज्वाइन की और फिर 1993 के अक्टूबर में मेरी नौकरी भी लगी. तब एक गाड़ी लेना जरूरी हो गया था. ऑफिस में ही बातें चलती. तरह तरह के मशवरे दिए जाते. कोई हीरो पुक लेने की सलाह देता तो कोई काइनेटिक हौंडा, क्यूंकि ये दोनों गाड़ियाँ उस समय सबसे ज्यादा पसंद की जा रही थीं. पर बात थी वहीँ की वहीँ. एक में गियर था और दूसरी बहुत ही भारी. अंत में मेरे बचाव के लिए सामने आया एक नाम “सनी”. बहुत ही हल्की गाड़ी थी और वो भी बिना गियर की. पतिदेव से बात की. उन्होंने मुझसे पहले पक्का किया कि मैं उसे चलाऊँगी, घर में खड़ा करके नहीं छोडूंगी और फिर मेरे घर आ गयी सनी. मेरे पतिदेव की तरफ से मेरे लिए पहली गाड़ी. स्वतंत्रता की ओर मेरा पहला कदम. ये 1994 की बात है.

बचपन में साइकिल चलाने की एक्सपर्ट थी. इसीलिए बैलेंस करने की समस्या नहीं थी. सनी को लेकर मैंने वसंत विहार में ही अभ्यास शुरू किया. फिर धीरे धीरे सड़क पर निकलने लगी और ऑफिस उसी से जाने लगी. तीन चार बार सड़क पर पलटी भी. पर वो कहते हैं न कि “गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले”. हौसला बुलंद रहा और सनी मेरी प्यारी सहेली बन गयी.

1996 में हम डेप्युटेशन से वापस भोपाल आ गए. सनी और हमारा साथ कायम था. 1997 में मैंने कार्मल स्कूल में नौकरी शुरू की. वैसे तो स्कूल बस से आती जाती पर कभी कभी सनी से भी जाना पड़ता. रास्ते में एक पुल पड़ता- चेतक ब्रिज- जो रेलवे ट्रैक के ऊपर था. जब उसपर सनी से चलती और हवा तेज होती तो ऐसा लगता कि मैं और सनी दोनों उड़ कर ट्रैक पर जा गिरेंगे.. क्यूंकि मैं भी हल्की फुल्की और मेरी सनी भी. फिर उन्नति तो सबको चाहिए ही. सोचा सनी अब स्वाति चलायेगी और मैं कुछ और ले लेती हूँ. तनख्वाह भी इतनी तो जरूर थी कि किश्तों पर एक दो पहिया ले सकूँ. एक दो साल ऐसे ही निकले. फिर सन 2000 में पहली बार मैंने अपनी कमाई से स्कूटी खरीदी. नौ पोस्ट डेटेड चेक दिए उसके लिए. बहुत नाज़ हुआ था उस दिन मुझे अपने आप पर. और ख़ुशी इतनी कि उतनी ख़ुशी शायद धनाढ्यों को बड़ी से बड़ी गाड़ी या हवाई जहाज लेकर भी न हो. “मेरी” गाडी थी वो. वैसे सनी भी मेरी ही थी पर ये पूरी तरह से मेरी थी. इसे जब चाहूँ, जहाँ चाहूँ, ले जा सकती थी. शान से लेकर निकलती थी इसे. जब सहकर्मी लिफ्ट मांगते तो बहुत अच्छा लगता. बहुत ख्याल रखती मैं अपनी स्कूटी का.

अब पतिदेव की भी प्रमोशन हो चुकी थी. पर नियम क़ानून अभी भी साथ चलते थे. यहाँ पर मैं एक बात बताना जरूरी समझती हूँ कि मैंने 10 साल स्कूल में नौकरी की, मेरी दोनों बच्चियां वहीँ से पढ़कर निकलीं. हम चार इमली में रहते थे जो भोपाल की पॉश कॉलोनी मानी जाती है और जहाँ आईएस, आईपीएस, आईएफएस और मंत्रियों के बंगले ही हैं, जहाँ हर घर के बच्चे पूल करके कार से स्कूल जाते थे, जहाँ हमें “रेड कार्पेट” वाले कहकर संबोधित किया जाता, वहां दोनों बच्चियों के साथ मैं सवा छ: बजे स्कूल बस का इंतज़ार करती. चाहे वो गर्मी हो, या जाड़े की अँधेरी सुबह या फिर घनघोर बारिश का मौसम. और तो और, मैंने दस साल स्कूल में काम किया, उसके बाद भी छोटी बेटी वहां पढ़ रही थी, पर मजाल है कि कभी भी हमारी बस छूट जाये.

लेडीज क्लब यहाँ भी था. सभी अफसरों की बीवियां पतियों की सरकारी गाड़ियों में आतीं. मैं स्कूटी से ही जाती. कुछ टोकने से बाज नहीं आतीं, “क्या भाभीजी कांसर्वटर ऑफ़ फॉरेस्ट की बीवी होकर आप स्कूटी से आती हैं, हमें कह दिया होता, हमारे साथ आ जाती आप”. पर मैं हंसती और कहती.. “आपलोग अपनी पतियों की सरकारी गाड़ी में घूम रहीं हैं, और मैं अपनी. आप पति और ड्राइवर की आरज़ू मिन्नत करती हैं और मैं अपनी ड्राइवर खुद हूँ. आप लोगों को कभी लिफ्ट चाहिए होगा तो बोलियेगा.” सच बताऊँ, लोगों की व्यंगपूर्ण हँसी और उनके कटाक्षों ने मुझे कभी हतोत्साहित नहीं किया बल्कि मुझमें हमेशा कुछ और बल का संचार किया है, कुछ और करने को प्रेरित किया है. 

स्वाति बड़ी हो गयी थी. उसे भी कोचिंग और फिर कॉलेज के लिए एक गाड़ी की जरूरत थी. 2006 में मैंने तय किया कि अब मैं एक कार लूंगी. स्कूटी बहुत ही अच्छे कंडीशन में थी. निर्णय लिया कि इसे स्वाति को दे दूँगी. टीवी पर बारिश में चलती हुयी नीली मारुति ऑल्टो कार का विज्ञापन आता. मन आ गया था उस कार और उसके रंग पर. पहली बार बैंक से लोन लेकर कार ली. 5 अप्रैल को डाउन पेमेंट करके बुकिंग करायी. सोचा था 10 अप्रैल को मेरे जन्मदिन के दिन वो कार मेरे घर आ जाएगी. मुझे पूरी की पूरी नीली ऑल्टो चाहिए थी जैसा टीवी पर दिखाते थे. बम्पर भी नीला. पर वो रंग उस समय उपलब्ध नहीं था. मुझे बताया गया कि अप्रैल के अंतिम सप्ताह तक आ पायेगी गाड़ी. स्वाति ने मुझे मैरून रंग वाली ऑल्टो लेने की सलाह दी. रंग वो भी बहुत प्यारा था पर मुझे तो नीली ऑल्टो ही लेनी थी. अब रोज रोज कार थोड़े ही ले पाती. बेटी थोड़ी नाराज़ हो गयी थी मुझसे. फिर हम सबने इंतजार करने को सोचा.

25 अप्रैल को कार की डिलीवरी के लिए शो रूम बुलाया गया. मैंने नॉर्मल कार ली थी यानि एसी तो था पर पॉवर स्टीयरिंग वाली गाड़ी नहीं थी वो. जान बूझ कर मैंने पॉवर स्टीयरिंग नहीं ली. सुना था बहुत ही हलके दवाब से पिक अप ले लेती है. कभी कार चलायी नहीं थी, सड़क से डर लगता था. सनी और स्कूटी से इस डर पर थोड़ी विजय तो पा ली थी. पर कार??? डरती थी, कहीं ज्यादा तेजी से कार आगे बढ़ गयी तो कोई दुर्घटना न हो जाये मुझसे. हाँ रेडियो और सेंट्रल लॉकिंग जरूर करवा ली थी मैंने. भीतर ही भीतर बहुत ही गौरवान्वित महसूस कर रही थी मैं. मेरा परिवार भी मुझ पर गर्व कर रहा था. घर में पहली खुद की गाडी आ रही थी. कहीं न कहीं ये लग रहा था कि मेरा भी कोई अस्तित्व है. मैं भी कुछ करने में सक्षम हूँ. पति की “ना” ने मुझे इस काबिल तो बनाया. शो रूम में ही मैंने एक ड्राइवर को देखा. बहुत ही दक्षतापूर्वक वो छोटी छोटी जगहों में शो रूम के अन्दर गाडी पार्क कर रहा था. ठान लिया कि अगर वो तैयार हो जाये तो उसी से कार चलाना सीखूंगी. मेरी खुशकिस्मती कि उसने हामी भर दी. उसका नाम था इरशाद. मैं चाहती थी कि उसकी कोई कार हो तो उसपर ड्राइविंग सीखूं. अपनी नयी ऑल्टो पर सीखा और कुछ गलत हो गया तो नयी कार में डैमेज होगा. ड्राइवर ने हँसते हुए कहा “मैडम सीखना तो आपको अपनी कार में ही होगा. मेरी कार में डैमेज करना चाहती हैं और खुद की में नहीं? वाह.” उसने ये भी कहा, “आप अपनी कार में सीखेंगी तो आप उसे ध्यान से चलाएंगी और आपका हाथ भी बैठेगा”. साथ साथ मुझे डांट भी लगायी कि “आप शुरुआत ही दुर्घटना और डैमेज जैसे नकारात्मक सोच के साथ करेंगी, तो कुछ भी सकारात्मक कैसे होगा. खुद पर भरोसा रखिये.” सचमुच कितनी बड़ी सीख थी ये. क्यूँ ऐसा सोच रही थी मैं? बहुत अच्छा लगा अपने कार ड्राइविंग गुरु के मुँह से ये सीख सुनकर.

दूसरे ही दिन से मेरी ट्रेनिंग शुरू हो गयी. एक हफ्ते की ट्रेनिंग थी. हर दिन कुछ नया. मैदान में बस 10 मिनट ही कार चलायी होगी बाक़ी सब सड़क पर. दिन में चलाना, रात में चलाना, पूरी ट्रैफिक में चलाना, बैक करना, ब्रेक फेल होने पर गाडी का नियंत्रण, ढलान पर गाड़ी का नियंत्रण, डिपर का प्रयोग... और भी कुछ कुछ जरुरी बातें.  मैं बहुत ही निष्ठावान शिष्य की तरह सीखती. बहुत अच्छे गुरु थे वो. कई गुरु मंत्र दिये..”गाड़ी की जितनी स्पीड और जिस भी गियर में सहज हों, उसी में गाड़ी चलायें, दूसरों के दवाब में न आयें न ही किसी की नक़ल करें. गाड़ी का नियंत्रण अपनी हाथ में रखें. आपका नियंत्रण गाड़ी के हाथ में नहीं होना चाहिए.”

एक हफ्ता पंख लगाकर निकल गया. मैंने एक बहुत बड़े डर पर विजय पाई थी.. सड़क पर कार चलाने का डर. कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं ऐसा कर पाऊँगी. पर मैंने कर दिखाया था एक अच्छे गुरु के मार्गदर्शन में. ट्रेनिंग के आखिरी दिन मैंने अपने ड्राइविंग गुरु के पांव छुए थे क्यूंकि उनसे मैंने वो गुर सीखा था जिसके लिए मुझे न खुद पर भरोसा था न ही कभी सोचा था कि ये हो पायेगा. उन्होंने भी जाते-जाते मेरी ड्राइविंग और जल्दी सीख जाने की लगन की काफी तारीफ की, कुछ और गुरु मंत्र दिए और एक धमकी भरा निर्देश भी- “मेरे जाने के बाद भी रोज गाड़ी चलाएंगी आप ताकि प्रैक्टिस में रहे. मुझे आपका फ़ोन नहीं आना चाहिए कि चलाना भूल गयी फिर से आकर सिखा दें”. उस दिन मैंने ड्राइविंग की एक परीक्षा पास कर ली थी.

अब मुझे गाड़ी अकेले चलानी थी. एक हफ्ता बहुत छोटा होता है आत्मविश्वास प्राप्त करने के लिए. पर गुरु की आज्ञा का पालन तो करना ही था. मैं भी चाहती थी कि आत्मनिर्भर होकर कार चलाऊं. अब मेरी रिसर्च थी नये नये रास्ते ढूंढना, वैसे रास्ते ढूँढना जिसमें ट्रैफिक ज्यादा न हो, जिसमें मुझे बाएँ बाएँ ज्यादा चलना हो भले ही वो थोड़ा लम्बा हो, ताकि मेरा अभ्यास होता रहे.

पतिदेव को गाड़ी चलाना अच्छा नहीं लगता और मैं कार चलाने का मौका ढूंढती. पहली बार पतिदेव और बच्चों को लेकर घर से 15 किलोमीटर गयी थी और 15 किलोमीटर वापस आई थी... एक पार्टी में और वो भी रात में. सबको लेकर चलो तो ज्यादा सावधानी बरतनी होती है. सच कहूँ तो मुझे तो डिपर का प्रयोग बताया गया था पर उस रात ये समझ में आया कि अधिकांश लोगों को इसकी समझ नहीं है. उनकी गाड़ियों की तेज हेडलाइट की रोशनी में सामने से आती गाड़ियों के चालकों की आँखें किस तरह से अंधी हो जाती हैं ये वो समझ कर भी समझना नहीं चाहते. न ही उन्हें ये पता होता है कि इंडिकेटर कितने पहले से देना होता है और न ही ये कि आगे वाली गाड़ी से कितनी दूरी बना कर चलें. ढलान पर भी आपकी गाड़ी के एकदम पीछे अपनी गाड़ी चिपका देंगे बिना ये सोचे कि आगे वाली गाड़ी बढ़ने में थोड़ी पीछे भी आ सकती है.

खैर, मैं इन सभी बाधाओं को पार करते हुए उस दिन परिवार सहित सकुशल वापस आ गयी थी. ये मेरी ड्राइविंग की दूसरी परीक्षा थी जिसमें मैं सफल हुई थी. पतिदेव ने मेरी पीठ थपथपाई थी और बच्चे गद्गद थे. अब कहीं जाने के लिए वो मम्मी को बेहिचक बोल सकते थे. मेरा भी आत्मविश्वास उस दिन काफी बढ़ा था. खुद को विजयी महसूस कर रही थी. वैसे पतिदेव भी अब थोड़े थोड़े प्रैक्टिकल हो गए थे, बच्चों के बड़े होने के बाद, पर दिली इच्छा उनकी ये ही रहती कि हम जहाँ तक हो सके, नियम का पालन करें.

कार लेने के एक साल बाद मैंने स्कूल की नौकरी छोड़ दी थी और कॉलेज की नौकरी ज्वाइन कर ली थी. कॉलेज घर से 26 किलोमीटर दूर था. शुरू शुरू में तो बस से आती जाती फिर वहां भी कार से जाना शुरू कर दिया. रास्ता काफी भीड़ भरा होता और एक चौराहा तो दुर्घटनाओं के लिए बदनाम था. पर मैंने हिम्मत नहीं हारी. रोज 52 किलोमीटर गाड़ी दौड़ाती.

इस बीच 2008 में पतिदेव ने दो साल की स्टडी लीव ली. पीएचडी करने के लिए. इस दौरान सब कुछ तो रहा पर सरकारी गाड़ी और ड्राइवर चले गए. अब गाड़ी की जरूरत तो पड़ती ही है. एक दिन पतिदेव ने किसी काम के लिए मुझसे पूछा – “तुम्हारी गाड़ी ले जाऊं?” मुझे अपना समय याद आ गया सिवनी वाला. वो कहते हैं न कि समय पलटा खाता है और सबका दिन आता है. आज मेरा दिन था. मैंने शान से कहा “बिलकुल ले जाईये. जहाँ जहाँ चाहें वहां और जब जब चाहें तब. ये मेरी गाड़ी है. सरकारी नहीं. किसी नियम से नहीं बंधी ये”. घमंड नहीं करना चाहिए पर उस दिन मेरी बातों में अहंकार था और इसे मैं अस्वीकार नहीं करुँगी.

पतिदेव के एक बैचमेट आये थे एक दिन. ऑल्टो को देखकर पूछा “किसकी गाड़ी है?” और मैंने छूटते ही कहा –“मेरी”. उन्होंने मुझे डांटा-“ ये 'मेरी' क्या है? 'हमारी' बोलिए” और मैंने फिर कहा “नहीं ये मेरी गाड़ी है” पतिदेव ने भी मेरे कथन की पुष्टि की. वो आश्चर्यचकित थे क्यूंकि ये सब चीजें तो परिवार की होती है. जरूर होती है पर “मेरी” बोलने के पीछे क्या दर्द था ये उन्हें क्या मालूम जिनकी बीवी हमेशा सरकारी गाड़ी में घूमती रही हों और खरीददारी और तफरी करती रही हों. मुझे कुछ समझाना भी नहीं था.

समय यूँ ही गुजरता गया. बीच में नौकरियों में तीन चार बदलाव भी हुए. कार चलती रही. 2015 दिसम्बर में पतिदेव सेवानिवृत्त हुए. अपनी विदाई भाषण में उन्होंने ये स्वीकारा कि वो बहुत खड़ूस पति रहे और ये भी कि उनकी खड़ूसियत से उनकी बीवी और उनके बच्चों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा.

सेवानिवृत्ति के बाद पतिदेव ने खुद के लिए एक नेक्सा एस-क्रॉस ले ली थी क्यूंकि मैं तो ऑल्टो लेकर पूरे दिन के लिए ऑफिस चली जाती थी. कार अच्छी चल रही थी और बहुत ही मेन्टेंड थी. कोई नहीं कह सकता था 10 साल पुरानी हो गयी थी. न बाहर से न अन्दर से. पर क्यूंकि उसमें पॉवर स्टीयरिंग नहीं थी और वो थोड़ी हार्ड चलती थी इसीलिए पॉवर स्टीयरिंग पर चलने वाले वाले उसे मजदूरों वाली गाडी” कहते. हालाँकि मेरे हाथ तो उसपर ही बैठे हुए थे और एवरेज भी 17 किलोमीटर का था. फिर भी न जाने क्यूँ एक बार ऑफिस से घर लौटते हुए मेरा नेक्सा इग्निस पर दिल आ गया. पता नहीं क्यूँ उसे लेने की इच्छा जागृत हो गयी. घर जाकर नेट पर उसकी खोजबीन की. बजट से बाहर लगी वो गाड़ी. उसे लेने का विचार वहीँ त्याग दिया. पर वो कहते हैं न कि किसी भी चीज को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है.

2017 में एक दिन बात बात में छोटे भाई से कहा कि एक नयी गाड़ी लेने की इच्छा है, लेकिन ये समस्या है तो उसने मुझे कहा “यही सही समय है गाड़ी बदलने का. ऑल्टो चाहे कितनी भी अच्छी स्थिति में हो पर 11 साल पुरानी हो चुकी है. 4 साल बाद उसका रजिस्ट्रेशन एक्सपायर हो जायेगा. फिर दिक्कत होगी. सड़क पर चलने में भी और बेचने में भी. अगर मन में बात आई है तो ले लो नयी गाड़ी”.

अन्दर के जोश ने एक बार फिर से जोर मारा. लग गयी एक नयी कार ढूँढने में. फेसबुक और OLX पर ऑल्टो का विज्ञापन डाला. इधर रेनॉल्ट क्विड से सिलसिला शुरू हुआ, फिर हुंडई इयॉन और फिर टाटा टिअगो. टिअगो अच्छी लगी. काफी दूर तक बात भी हुई. जब कीमत की बात आई तो काफी ऊपर जा रही थी. दो मुद्दे सामने थे ऑल्टो की अच्छी कीमत मिलना और तोलमोल करके नयी गाड़ी की कीमत कम करवाना. लोन तो फिर से लेना था पर मैं कम से कम लोन लेना चाहती थी. डाउन पेमेंट के पैसे थे पर बाकी तो लोन ही लेना पड़ता.

फेसबुक और OLX के विज्ञापन के कारण कॉल आ रहे थे. कुछ लोग तो देखने भी आये. सभी को ऑल्टो बहुत पसंद आ रही थी. कार ज्यादा चली भी नहीं थी. पर उसके कंडीशन, माइलेज और किलोमीटर रन को दरकिनार कर लोग उसके 11 साल के होने के कारण कुछ भी कीमत लगा रहे थे जो मुझे मंज़ूर नहीं था. कार की अच्छी कीमत मिली तो ही इसे बेचूंगी नहीं तो इसी से आगे भी काम चला लूंगी. नयी कार नहीं लूंगी. यही तय किया मैंने.

टाटा के यहाँ कोई एक्सचेंज ऑफर नहीं चल रही थी. फिर भी वो ऑल्टो को लेने के लिए तैयार थे. कीमत भी खुद के हिसाब से ठीक ही लगायी थी पर मेरे लिए वो थोड़ी कम थी. मैं उनसे और कीमत की मांग कर रही थी  और वो टस से मस नहीं हो रहे थे. कंपनी का हवाला दे रहे थे. मेरे सारे सहकर्मी भी पूरी मुस्तैदी और जोशो खरोश के साथ मेरे साथ इस अभियान में लगे थे.

इग्निस मेरी पुरानी पसंद थी. जब टिअगो के लिए बात चीत चल ही रही थी तो सोचा इग्निस पर एक बार फिर से रिसर्च कर लिया जाये. शुरू हो गए हम सब. मैं उस समय यूनिवर्सिटी में थी और यूनिवर्सिटी शहर से काफी दूर. सही कहूँ तो दूसरे जिले  में. मेरे घर से 22 किलोमीटर दूर. भोपाल में नेक्सा के तीन डीलर्स हैं. एक को फ़ोन लगाया. उनका शो रूम यूनिवर्सिटी से कम से कम 26-27 किलोमीटर तो होगा. पर दो घंटे के अन्दर वो इग्निस लेकर यूनिवर्सिटी कैंपस में दाखिल हुये. मुझसे टेस्ट ड्राइव करवाने के लिए. हमारे ऑफिस के कमरे की खिड़कियाँ बाहर की ओर खुलती हैं और सामने काफी खूबसूरत नज़ारा दिखता है-ग्राउंड, गेट, सड़क और पहाड़ों का. दिसम्बर का महीना था और जाड़े की कड़क धूप थी. सामने गेट से चमचमाती हुई नीली इग्निस ने प्रवेश किया. उसका रंग धूप में खूब चमक रहा था और बहुत ही शानदार लुक दे रहा था. हम सभी के मुँह से एक साथ एक सुर में निकला “wowwwww”.

मैं थोड़ी देर के लिए बाहर गयी. गाड़ी मुझे बाहर से जितनी अच्छी लगी थी, अन्दर से भी उतनी ही खूबसूरत थी. ड्राइवर सीट पर बैठी और कार स्टार्ट की. ये पॉवर स्टीयरिंग वाली गाड़ी थी और मैंने चलायी थी मजदूरों वाली गाड़ी(जैसा लोग कहते थे). पता था हलके से एक्सिलेटर या ब्रेक दबाना है. शायद सड़क पर टेस्ट ड्राइव करना होता तो हिम्मत नहीं जुटा पाती. पर यहाँ कोई डर नहीं था क्यूंकि मैं खुले मैदान में थी. दो राउंड लगाये. मजा आ गया. बाहर ही ऑल्टो भी खड़ी थी. उन्हें बताया कि मुझे उसे एक्सचेंज में देना है तो उन्होंने भी मेरी गाडी की टेस्ट ड्राइव की. उन्हें भी मेरी ऑल्टो पसंद आई. रख-रखाव के मामले में तो वो बिलकुल नयी जैसी थी ही(फोटो) फिर थोड़ी देर बैठ कर एक्सचेंज प्राइस और बाकी देय राशि पर बातें हुयीं. उनसे मैंने पूरी एस्टीमेट ले ली - कार, एक्सेसरीज, बीमा और रोड टैक्स समेत. ऑल्टो फिर से अपनी निर्माण वर्ष के कारण मात खा रही थी. उनका एक्सचेंज ऑफर मुझे पसंद नहीं आ रहा था. मैंने समय माँगा. घर में बात की. अपना बजट बनाया. फिर सोचा, और भी दो शोरूम हैं, वहाँ भी पूछती हूँ. दूसरे शोरूम में परिवार के साथ शाम में गयी. वहां से भी सारी जानकारियाँ लीं. इस शोरूम में चार रंगों में इग्निस खड़ी थीं और इस बार मैंने सोचा था कि जो रंग परिवार वाले पसंद करेंगे वही रंग लूंगी. स्वाति का हाल में ही पुणे से भोपाल तबादला हुआ था और संयोग से वो इस बार भी मेरे साथ थी और साथ-साथ थे हमारे दामाद नीरज भी. हाँ शान नहीं थी तब हमारे साथ. उसकी कमी खली. आश्चर्य इस बात का हुआ कि इस बार सभी को नीला रंग ही “शानदार” लगा जबकि मैं किसी भी रंग के लिए तैयार थी. इस दूसरे शोरूम वाले ने तो बहुत ही ऊँचे दाम बताये जबकि चीजें वही थीं. बहुत ज्यादा उत्साह भी नहीं दिखाया वहां के सेल्सपर्सन ने. इसीलिए “यहां से तो बिलकुल नहीं लेना है” ये ठान लिया. वैसे तो ये शोरूम घर से सबसे नजदीक था पर जहाँ लोग बेचने में उत्साह नहीं दिखा रहे वो बेचने के बाद क्या सुनेंगे, अगर कभी जरूरत पड़ी तो. बस एक एस्टीमेट वहां से भी लिया. अब गाड़ी अच्छी लग चुकी थी, रंग पसंद किया जा चुका था, दो शोरूम देखे जा चुके थे. लगा तीसरा भी देख ही लूं. मुझे ऐसे भी इस तरह की रिसर्च करना बहुत पसंद है.

अगले दिन तीसरे शोरूम में फ़ोन लगाया. सेल्सपर्सन उसी दिन शाम में आने को तैयार था. 3 दिसम्बर था उस दिन. हमारी शादी की 33वीं सालगिरह का दिन. हमारा कहीं बाहर डिनर का प्रोग्राम था उस शाम. मैंने उसे कारण बताते हुये दूसरे दिन आने को कहा. पर उसने मुझसे बस आधे घंटे का समय माँगा और पहुँच गया बिलकुल नियत समय पर एक इग्निस और एक गुलदस्ते के साथ. हमें सालगिरह की मुबारकबाद दी और मुझे टेस्ट ड्राइव करने को कहा. इस बार मैंने अपनी कॉलोनी की गलियों में इग्निस की टेस्ट ड्राइव की. आकर उसने मुझे एस्टीमेट दिया उस दिन चला गया.

आगे के दो तीन दिन तीनों एस्टीमेट की तुलना करने, पहले और तीसरे शोरूम वाले से तुलनात्मक मोलभाव करने, ऑल्टो से ज्यादा से ज्यादा एक्सचेंज ऑफर की बात करने इत्यादि में गये. मैंने भी बिलकुल ऐसी कार्यनीति अपनाई जैसे मैंने मार्केटिंग में एमबीए किया हो और आखिरकार कीमत को काफी हद तक कम करने में सफल हुयी. क्या किया, कैसे किया ये एक सीक्रेट है. पहले शोरूम वाले की हार हुयी क्यूंकि वो कुछ ज्यादा ही अडिग था पर तीसरे वाले की बातचीत का तरीका, उनकी मार्केटिंग स्टाइल और उनका हर व्यवहार हमें पसंद आया. ये अलग बात है कि जब सारी बातें तय हो गयीं तो पहले शोरूम वाले ने भी उतनी ही कीमत पर मुझे गाड़ी देने का प्रस्ताव रखा. पर अब समय गुजर चुका था और मैंने अपनी जबान दे दी थी तीसरे वाले को.

आखिरकार 8 दिसम्बर यानि कि पतिदेव के जन्मदिन के दिन एक नीली इग्निस हमारे घर आ गयी. साढ़े ग्यारह साल पहले ऑल्टो मैं अपने जन्मदिन के दिन लेना चाहती थी और उस दिन इग्निस आई इनके जन्मदिन पर. ये एक संयोग ही था. शोरूम में बहुत ही शानदार स्वागत हुआ हमारा और उनके कार की डिलीवरी की भव्य प्रक्रिया ने हमें बहुत ही प्रभावित किया. बड़े टीवी स्क्रीन पर मेरा नाम एक वेलकम नोट के साथ दमक रहा था. गाड़ी को अच्छे से साफ़ करके, एक्सेसरीज के सुसज्जित करके शोरूम में लाया गया. परंपरागत पूजा के लिए पूरी तरह सुसज्जित पूजा की थाली, केक काटना, गुलदस्ता भेंट करना, मिठाई, चॉकलेट... सबकुछ हुआ उस दौरान, भारतीय रीति भी और वेस्टर्न भी. शोरूम के मैनेजर ने गाड़ी की चाभी थमाते हुए एक वादा लिया - “वादा कीजिये, आप बिना सीट बेल्ट के कभी गाड़ी नहीं चलायेंगी”. वैसे तो मैं ट्रैफिक नियमों का पूरी तरह पालन करती हूँ पर ये गाड़ी भी कौन सा मुझे बिना सीट बेल्ट के चलने देती. बीप कर कर के मजबूर कर देने वाली थी इसके लिए वो.  

मैंने दामाद जी के हाथों में उसकी ड्राइविंग का जिम्मा दिया. रात के समय मेरी हिम्मत नहीं थी इस नयी हल्के पिक वाली गाड़ी को चलाने की. मंदिर में पूजा हुयी और फिर आ गयी इग्निस हमारे घर. शो रूम गयी थी ऑल्टो से और वहां से लौटी इग्निस से.

करीब दो हफ्ते मैं बड़ा सा लाल “L” लगाकर ऑफिस जाती आती रही उससे. साढ़े ग्यारह साल कार चलायी थी पर फिर भी इस नयी गाडी के ABC(यानि एक्सिलेटर, ब्रेक और क्लच) और स्टीयरिंग से जान पहचान करनी थी मुझे और उसके नए आकर प्रकार से भी एडजस्ट होना था.

आज मैं इग्निस से ही यूनिवर्सिटी आ जा रही हूँ. अब वो मेरी अच्छी साथी बन गयी है. पतिदेव की मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने मुझे “ना” कहा. उसके कारण ही मेरा पैदल से इग्निस तक का सफ़र पूरा हो पाया, मेरा परावलंबन स्वावलंबन में बदल पाया, मुझे परतंत्रता से स्वतंत्रता का एहसास हुआ, एक पहचान मिली. वो आइंस्टीन ने कहा था न “I am thankful to all those who said NO to me. It is because of them I am doing it myself.” और मैं अपने पतिदेव की शुक्रगुजार हूँ.   


स्कूटी

मेरी साढ़े ग्यारह साल पुरानी ऑल्टो-बिलकुल नयी जैसी


मेरी साढ़े ग्यारह साल पुरानी ऑल्टो-बिलकुल नयी जैसी


इग्निस-और साथ में स्क्रीन पर दमकता मेरा नाम