Monday, 22 October 2018

अकस्मात् - वो पांच आपबीती घटनायें



जीवन में बहुत कुछ अकस्मात् हो जाता है. अगले पल क्या होगा हमें पता नहीं. पर कुछ हो जाने पर हमारी क्या प्रतिक्रिया होगी इसका अंदाजा भी हमे शायद ही होता है. वैसे समय पर दिल और दिमाग एक खेल खेलते हैं. दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होते हैं. दिल डराता है क्यूंकि वो इमोशनल होता है, निराशावादी होता है, पर दिमाग हौसला देता है क्यूंकि वो लॉजिकल होता है, आशावादी होता है. इस समय इनमें से जिसकी जीत होती है वो तय करता है कि इंसान ऐसी परिस्थितियों से कैसे निबटेगा. वो लोग जो दिल की सुनते हैं वो ज्यादातर हताश और निराश हो जाते हैं, हार जाते हैं. शायद इसीलिए ईश्वर ने दिमाग को दिल के ऊपर रखा है और शायद इसीलिए दिल को प्रतिस्थापित किया जा सकता है पर दिमाग को नहीं. मैं आज उन आपबीती पलों की बात करुँगी जिसमें मेरा दिमाग विजयी रहा. वैसे तो कई ऐसे पल आये पर मुख्य 5 आपबीती का वर्णन यहाँ करुँगी. दूसरा थोडा बड़ा है पर बाकी छोटे छोटे.


एपिसोड – 1

वर्ष-1992

छोटी बेटी शान प्रीमैच्योर पैदा हुई थी. लगभग एक महीने पहले. वो भी देहरादून में. ऐसे बच्चों को सर्दी जुकाम से बहुत बचाना होता है क्यूंकि उनके फेफड़े कमजोर होते हैं. पर वहां की ठंडक में इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती थी.

नवम्बर 1992 की रात थी. शान तब करीब डेढ़ साल की थी. अकस्मात् रात ढाई बजे के करीब मेरी नींद उसकी साँसों की अजीब सी आवाज़ के कारण खुल गयी. कुछ सीटी जैसी आवाज़ें आ रही थी. सीना धौंकनी की तरह चल रहा था और बाहर फ़ेंक रहा था. उसे सांस लेने में बहुत तकलीफ हो रही थी. मैं बहुत घबरा गयी. ऐसा कभी देखा नहीं था. पतिदेव को जगाया. उन्होंने भी देखा पर कहा कि अभी एक होम्योपैथिक दवा दे देते हैं. सुबह होते ही डॉक्टर के पास ले चलेंगे.

मेरा दिल किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत हो रहा था. मैंने जिद की तत्काल चलने के लिए. उनहोंने कहा –“इतनी रात में कौन सा डॉक्टर मिलेगा? ये कोई समय है किसी को उठाने का? सभी गहरी नींद में सो रहे होंगे.”

पर मैं जिद पर अड़ गयी. मैंने कहा कि जब बीमारी का कोई समय नहीं तो डॉक्टर का क्यूँ?  डॉक्टर के घर जाकर उठाएंगे उन्हें. देर मत कीजिये, चलिए.

बड़ी मुश्किल से उन्हें चलने को तैयार किया.

पहले हॉस्पिटल पहुँच कर उस डॉक्टर का पता लिया जो शान को उसके पैदा होने के समय से देख रहे थे. फिर उनके घर पहुंचे. रात के साढ़े तीन बज रहे थे. कुत्ते कर्कश स्वर में भौंक रहे थे. डॉक्टर के घर के गेट में अन्दर से ताला लगा था. बाहर कोई कॉल बेल भी नहीं थी. हमलोग अपनी बुलंद आवाज़ में डॉक्टर को लगातार पुकारने लगे बिलकुल फिल्म ‘मशाल’ के दिलीप कुमार के अंदाज़ में. गुहार लगाने लगे उनके जल्दी बाहर आने के लिए. बेटी के तबियत का ब्यौरा देते हुए. उसकी नाज़ुक हालत बयाँ करते हुए.

करीब 5 मिनट बाद डॉक्टर बाहर निकले. शान को देखा. बोला कि हम उसे तुरंत हॉस्पिटल ले जाकर नेबूलाईजर लगवाएं. देर न करें. उन्होंने कहा वो फ़ोन से नर्स को सूचित कर दे रहे हैं डोज के सन्दर्भ में. और वो भी पीछे से आ रहे हैं. 

हम बिना देर किये हॉस्पिटल पहुंचे. शान की हालत नाज़ुक हो रही थी. उसे तुरंत नेबूलाइजर लगवाया गया. 15 मिनट के अन्दर डॉक्टर भी पहुँच गए थे. उन्होंने भी आकर दुबारा देखा. कुछ और दवाइयां दी. फिर हमसे मुखातिब हुए. पूछा –“इतनी रात में आपने आने की कैसे सोची?”

पतिदेव को लगा कि वो नाराज़गी में बोल रहे हैं. सो उन्होंने कहा – “मैं तो मना कर रहा था. सुबह आने को बोल रहा था. इन्होने ही अभी आने की जिद पकड़ ली.” ये कहते हुए उन्होंने मेरी ओर इशारा किया. डॉक्टर से माफ़ी भी मांगी.

पर पता है डॉक्टर ने क्या कहा- “अच्छा हुआ आप इसे अभी ले आये. थोड़ी देर और करते तो कुछ भी अनहोनी हो सकती थी. फिर हम इसके लिए कुछ नहीं कर पाते. इन्होने जिद करके बिलकुल सही किया क्यूंकि आपकी बेटी को एक्यूट निमोनिया है”

हमें काफी समय तक हॉस्पिटल में रहना पड़ा उसकी हालत सुधरने तक. उस दिन मैंने भगवान को बहुत धन्यवाद दिया. उस डॉक्टर की भी बहुत कृतज्ञ थी जिन्होंने मरीज के आगे समय नहीं देखा था. मेरी बेटी की जान बच गयी थी. पतिदेव ने भी गर्व और कृतज्ञता से मेरी और देखा था तब.



एपिसोड - 2

वर्ष-1996

हम अप्रैल 1996 में देहरादून से ट्रान्सफर होकर भोपाल आये. उसी समय मेरे पतिदेव के एक बैचमेट का ट्रान्सफर यहाँ से दिल्ली हुआ था और उन्हें यहाँ से शिफ्ट होना था. इसीलिए उनका ही सरकारी आवास हमे आवंटित किया गया. वो भी बस दो-तीन महीने पहले ही भोपाल आये थे. बड़े ही पसंद और लगन से उन्होंने उस आवास में रंग रोगन करवाया था, उसे सजाया था और फूलों की क्यारियां बनवाई थी. ज़ाहिर है इतना कुछ किया था तो इतनी जल्दी यहाँ से जाने की इच्छा तो उनकी होगी नहीं. खासकर उनकी श्रीमती जी की, जिन्होंने बातों बातों में इसे जताया भी था. उनका कहना था कि कराया सबकुछ उन्होंने पर उसका सुख मिलेगा हमें, उन्हें नहीं. पर सरकारी नौकरी में ट्रान्सफर पोस्टिंग का समय नियत नहीं होता. उनलोगों ने हमसे दो-तीन महीने का समय माँगा. तब तक हमने अपना सामान उनके गेराज में, जो काफी बड़ा था, रखवा दिया था. खुद गेस्ट हाउस के एक रूम में चले गए थे रहने.

बड़ी बेटी स्वाति तब नैनीताल के एक बोर्डिंग स्कूल में थी. छोटी बेटी शान का दाखिला केजी में यहाँ करवाना था. ईश्वर की कृपा से वो बहुत ही आसानी से यहाँ के श्रेष्ठतम स्कूलों में से एक में हो गया. उसी समय कुछ नयी मारुती जिप्सी गाड़ियाँ आई थीं डिपार्टमेंट में. उनमें से एक ब्रांड न्यू गाडी इन्हें अलॉट कर दी गयी. लोगों की आँखों में हम चढ़ गए. कई लोग कई दिनों से मकान ढूंढ रहे थे, कईयों को पुरानी गाड़ियों से काम चलाना पड़ रहा था कई अपने बच्चों के लिए स्कूलों के चक्कर काट-काट कर थक चुके थे और उनके बच्चों को अच्छे स्कूलों में दाखिला नहीं मिल रहा था. ऐसे में बहुत ही ज़ाहिर सी बात थी, लोगों को हमारा सबकुछ आसानी से मिलना अखरता ही. उनको दोष नहीं दूँगी मैं. हमारी इंसानी प्रवृति ही ऐसी है.
 
हम जुलाई में चार इमली के उस सरकारी आवास-एक डुप्लेक्स-में शिफ्ट हो गए.

अकस्मात् एक शाम मेरे पतिदेव सीढ़ियों पर से गिर पड़े और कुछ दूर लुढ़क गए. उन्हें चोट आई थी.

अकस्मात् उसी जुलाई में ही कुछ दिनों बाद शान भी सीढ़ियों पर से गिरी और उसकी दाहिनी आँख के ऊपर एक गहरा कट लगा. बहुत ब्लीडिंग हुई. टांके लगवाने पड़े.

अकस्मात् एक दिन सुबह जब मैंने चाय बनाने के लिए गैस जलाया, पूरे चूल्हे ने धधक कर आग पकड़ ली. मैं चौकन्नी थी सो खट से अलग हो गयी और दिमाग ने काम किया तो झट नीचे झुककर रेगुलेटर बंद किया वर्ना कुछ भी हो सकता था. मुझे या पूरे घर में आग लग सकती थी क्यूंकि शायद चूल्हे के नीचे लगी पाइप में कहीं पर से गैस लीक हो रही थी.

सबकुछ किसी भूत वाली मूवी की तरह घटित हो रहा था.

और फिर अकस्मात् ही कुछ बिलकुल अप्रत्याशित हुआ.

अगस्त का महीना था. शान की केजी क्लास दोपहर 1 बजे से शाम 5 बजे तक लगती थी. वो 12:30 बजे घर से निकलती थी अतः मैंने कहीं नौकरी ज्वाइन नहीं की थी. पतिदेव लंच के लिए आये थे पर वापस जा चुके थे. मैं दोपहर की नींद लेने नीचे ही बेडरूम में लेट गयी थी. नींद भी आ चुकी थी. फिर एकाएक एक फेरीवाले की आवाज़ कानों में पड़ी. कुछ ऐसा बेच रहा था जिसकी मुझे जरूरत थी. मैं अचानक उठी. पर इससे पहले कि उसे आवाज़ लगा पाती, पेट में असहनीय पीड़ा शुरू हो गयी. गश आने लगे. मैंने बाई को आवाज़ लगायी. कहा साहब को फ़ोन करे और जल्दी घर बुलाये और मैं लगभग बेहोश हो गयी. दर्द इतना था कि मुझे कोई सुध नहीं थी. ऐसा दर्द मुझे पहली बार हुआ था.

ऑफिस ज्यादा दूर नहीं था. पर ऑफिस से निकलते ही इनकी गाड़ी के सर्किट में कुछ ख़राबी हो गयी. पता नहीं कहाँ से फिर भगवान ने अपना एक अनजाना सा दूत भेज दिया था जो एक मैकेनिक था और जिसने तुरंत गाड़ी ठीक कर दी. 15-20 मिनट के अन्दर ही ये आ गए. मुझे डॉक्टर के पास ले जाया गया. तब तक 2-3 उल्टियाँ भी हो गयीं थी. दर्द की व्याख्या सुनकर डॉक्टर ने सीधे कहा ये फ़ूड पॉइजनिंग का दर्द है. मुझे मालूम था कि ये फ़ूड पॉइजनिंग का दर्द नहीं था. मैंने बीते दिनों न बाहर का कुछ खाया था न ही बासी. खुद के हाथों के बने व्यंजन खाए थे मैंने वो भी बिलकुल सफाई से बने हुए. फिर भी डॉक्टर को अपना काम करने दिया. उस दर्द से मुझे निजात पाना था. शाम से रात हो गयी रात से सुबह. मैं क्लिनिक में ही थी. इंजेक्शन्स पर इंजेक्शन्स लगाये जा रहे थे. ड्रिप लगी हुई थी पर दर्द एक रत्ती भी कम होने का नाम नहीं ले रहा था.

सुबह मुझे एक हॉस्पिटल के लिए रेफर किया गया. कहा गया कि मैं सोनोग्राफी करवा लूं. और उस सोनोग्राफी में अकस्मात् ही एक नयी बात सामने आई. मेरे गॉल ब्लैडर(पित्ताशय) में अनेक गतिशील पत्थर थे वो भी नुकीले. एक पित्ताशय की बाहर खुलने वाली नली के मुख पर फंसा था और उसने उसे ब्लॉक कर दिया था. इसके कारण क्यूंकि पित्ताशय से बाइल जूस बाहर नहीं निकल पा रहा था अतः पित्ताशय बिलकुल फूल गया था और कभी भी फट सकता था. इमरजेंसी ऑपरेशन की सलाह दी गयी. उस समय एक गैस्ट्रोलॉजिस्ट का नाम हमारे फैमिली डॉक्टर ने सुझाया. कहा बहुत अच्छे हैं. उनसे ऑपरेशन करवा लो.

जब डॉक्टर सामने आये तो मेरे पतिदेव और मेरा-दोनों का मन आशंकित हो गया. बहुत ही कम उम्र के डॉक्टर थे वो. जिस विश्वास के साथ डॉक्टर ने उनसे ऑपरेशन कराने को कहा था, लगता नहीं था कि वो विश्वास के अनुरूप इतने अच्छे होंगे. पर ये दिल की बातें थी. हम भी तो किसी और को नहीं जानते थे. फिर भी इस दिल की आशंका को हमने अपने फैमिली डॉक्टर के सामने रखा. वो अपनी बात पर अडिग रहे. उन्होंने कहा कि हम उनपर भरोसा करें. हमने इस शर्त के साथ बात मान ली कि वो भी इस नये डॉक्टर के साथ ऑपरेशन थिएटर में रहेंगे.

मुझे ऑपरेशन के लिए ले जाया जा रहा था. दोनों बच्चे नार्मल हुए थे अतः पहला ऑपरेशन था मेरा. पतिदेव को कुछ दवाइयों की पर्ची देकर कहा गया कि वो उसे जल्दी से ले आयें. उधर पतिदेव दवा लेने नीचे गए इधर फिर अकस्मात् कुछ हुआ. एक और डॉक्टर, जो इस नये डॉक्टर के सीनियर थे और सोनोग्राफी की रिपोर्ट से सहमत नहीं थे, अपनी एक नर्स के साथ वहां आये. उनकी दलील थी कि जिस तरह का दर्द है वो पेट के अल्सर का ही हो सकता है, गॉल ब्लैडर की पथरी का नहीं. उनका कहना था कि गलत ऑपरेशन न किया जाये. इसीलिए वो मुझे एंडोस्कोपी के लिए, बिना मेरे पतिदेव को बताये लेकर चल पड़े. मैंने उन्हें रोका पर वो सुनने को तैयार नहीं थे. मेरी आँखें अपने फैमिली डॉक्टर को ढूंढ रहीं थी पर शायद तब तक वो भी वहां नहीं आये थे. मेरी हालत भी ऐसी नहीं थी की स्ट्रेचर से कूद पडूँ. ऐसे में मेरा न दिल कुछ कह रहा था न ही दिमाग कुछ काम कर रहा था. बस भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि वो जल्दी से मेरे पतिदेव को वहां भेज दें. जूनियर डॉक्टर को मेरे पतिदेव को लेकर आने को कहा गया.

दूसरे हॉस्पिटल में मुझे लिटा दिया गया. मेरा मुँह खोल कुछ फंसा दिया गया ताकि मुँह बंद न हो सके. एक नर्स मेरे दोनों पैर और दो नर्सें मेरे दोनों हाथ कसकर पकड़ कर खड़ी हो गयीं ताकि मैं बिलकुल हिलडुल न सकूँ. एंडोस्कोपी की पाइप मेरे मुँह से मेरे पेट में डाली गयी. मुझे बेहोश भी नहीं किया गया. एक तो मैं दर्द से बेहाल थी दूसरी ये यातना. न हिल पा रही थी न ही चिल्ला पा रही थी. जल्लादों की तरह सलूक किया गया मेरे साथ. आँख से आंसू बह रहे थे. बुरी तरह से उलटी आ रही थी क्यूंकि उस एंडोस्कोपी ट्यूब को पेट के अन्दर बेतरह हिलाया डुलाया जा रहा था. थोडा हिलती तो नर्स और डॉक्टर भी बुरी तरह से डांटते... हिलिए मत कैमरा टूट जायेगा, लाखों का है. बिलकुल अमानवीय बर्ताव जिसकी एक डॉक्टर से तो बिलकुल उम्मीद नहीं थी... वो भी सिर्फ उनके अपने ईगो की संतुष्टि के लिए.

कुछ नहीं निकला पर एंडोस्कोपी से तो तौबा कर लिया मैंने. न, बिलकुल नहीं, किसी को भी सलाह नहीं दूँगी मैं. हालाँकि लोग कहते हैं कि अब एंडोस्कोपी इतनी पीड़ादायक नहीं होती पर उस दिन तो थी. तब तक पतिदेव भी दूसरे डॉक्टर के साथ वहां आ गए थे. पर जब तक वो पहुंचे थे मेरी पूरी दुर्गति हो चुकी थी.

दिल झगड़ा करने को कह रहा था पर दिमाग ने कहा कि ऑपरेशन को जल्द से जल्द हो जाना चाहिए इससे पहले कि कुछ अनहोनी हो. मुझे उस हॉस्पिटल में वापस लाया गया. हमारे फैमिली डॉक्टर भी तब तक आ गए थे. ऑपरेशन लैप्रोस्कोपी से करना तय किया गया था. आज मैं अपना गॉल ब्लैडर खोने वाली थी. मैंने पहले ही बोल दिया कि जितने भी पत्थर निकलें वो और मेरा गॉल ब्लैडर-दोनों मुझे चाहिए, ऑपरेशन के बाद. डॉक्टर बड़े हसमुख स्वाभाव के थे. उन्होंने तब मुझे ऑपरेशन का विडियो देने की भी पेशकश की थी जिसे मैंने मना कर दिया. अनेस्थेसिया देने के लिए कोई ऐसी नस ही नहीं बची थी जिसमें छेद न हों. रात भर ड्रिप और इंट्रावेनस इंजेक्शन जो लगते रहे थे. मजाक मजाक में डॉक्टर मेरा हाथ पकड़ कर बैठ गए. बोले मेरे हाथ से एनेस्थीसिया लगा दो.. आरती बेहोश हो जाएगी. शायद वो मेरे एंडोस्कोपी से हुए स्ट्रेस को अभी भी चेहरे पर पढ़ रहे थे और मुझे सहज बनाने की कोशिश कर रहे थे. यूँ तो लैप्रोस्कोपी से ऑपरेशन काफी जल्दी हो जाता है पर मेरा ये ऑपरेशन काफी लम्बा चला. कारण ये था कि मेरा गॉल ब्लैडर पथरी की ज्यादा संख्या के कारण काफी बड़ा हो गया था और लैप्रोस्कोपी के छोटे कट से वो बाहर नहीं आ पा रहा था. अब ऑपरेशन करके उसे निकलना ही एक आप्शन था. उससे एक बड़ा कट लगता और टाँके भी. पेट बिलकुल भद्दा दिखता. तब मेरी उम्र मात्र 33 साल थी. डॉक्टर ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और वैसा ऑपरेशन न करने का फैसला लिया. अब उन्होंने एक एक करके पहले सारे पत्थरों को वैक्यूम करके निकाला. फिर उस खाली गॉल ब्लैडर को उसी छोटे कट से निकाला. 75 पत्थर थे अनार के दाने के साइज़ के. तीखे एज वाले. टाइम तो लगना ही था. गॉल ब्लैडर भी बुरी हालत में था. पर दोनों चीजें मुझे बोतल में प्रीजर्व करके गिफ्ट की गयीं.

अकस्मात् रात में आइसीयू में मेरे बगल के एक मरीज़ की मृत्यु हो गयी. एकाएक बहुत जोर से चिल्ला कर रोने की आवाज़ से मेरी नींद खुल गयी. मुझे घबराहट होने लगी. तुरंत मुझे दूसरे कमरे में शिफ्ट किया गया. सफोकेशन होने लगा था. डॉक्टर ने उसका कारण शॉक और गैस बताया. ये सब दिल की घबराहट के कारण था जो बगल के बिस्तर पर मृत मरीज को देखने से हुआ था. एक पाइप फिर से नाक से पेट तक डाली गयी. गैस बाहर निकलने के लिए. एक पूरे दिन मैं वैसे ही पड़ी रही.

उसके अगले दिन मुझे हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गयी. पर कहा गया कि टाइफाइड की पूरी सम्भावना है क्यूंकि कुछ बाइल जूस ऑपरेशन के दौरान पेट के अन्दर भी निकला है. पर मुझे खाने से कोई परहेज न करने को कहा गया, ताकि मेरा शरीर धीरे-धीरे हर तरह के खाने को स्वीकार कर सके. मुझमें हिम्मत का संचार इन पंक्तियों से किया गया कि मैं बिलकुल ठीक हूँ और पहाड़ भी उठा सकती हूँ यदि उठ जाये तो. मुझे कहा गया कि तंग करने वाले अंग को जड़ से निकाल कर हटा दिया गया है. अब परेशानी का कोई कारण ही नहीं. ये सब शायद उन हिदायतों से बिलकुल विपरीत था जो आम तौर पर डॉक्टर्स गॉल ब्लैडर के ऑपरेशन के बाद देते हैं.

मेरे दिमाग ने ये सारे तथ्य स्वीकार किये. लेकिन जैसा कहा गया था वैसा ही हुआ, घर आने के अगले दिन ही मैं टाइफाइड की शिकार हुई. और परसिस्टेंट मलेरिया की भी जो किसी दवा से जा ही नहीं रहा था. दिल्ली से स्पेशल दवा मंगवाई गयी. बहुत महंगी दवा थी किसी जापानी कंपनी की. डॉक्टर कुछ दिनों बाद घर आये थे. उस दिन 28 अगस्त था. राखी का दिन. हमने उन्हें डिनर पर बुलाया था. मैंने उन्हें राखी बाँधी. उन्होंने एक बड़े भाई की तरह मेरा ख्याल रखा था. दो दिनों के अन्दर इंग्लैंड रवाना होना था उन्हें. उन्होंने भोपाल से निकलने से पहले फ़ोन पर मेरा हाल पूछा. कहा कि यदि मैं ठीक नहीं हूँ तो वो रुक जायेगे. मैंने कहा कि वो मेरे लिए परेशान न हों. फिर दिल्ली एअरपोर्ट से भी उनका फ़ोन आया था. वो अपना इंग्लैंड जाना कैंसिल करने के लिए तैयार थे क्यूंकि उनके लिए मरीज की सेहत ज्यादा जरूरी थी. उन्हें मेरी तकलीफ का एहसास था. सचमुच बहुत अचछे डॉक्टर थे वो.

समय के साथ सबकुछ ठीक हुआ. पर हाँ मेरे ऑपरेशन की खबर लगते ही मेरे पतिदेव के बैचमेट ने उन्हें फ़ोन किया था और पूछा था... “सुहास, कहीं तुम्हें ऐसा तो नहीं लग रहा कि हमलोगों की नज़र तुमलोगों को लग गयी क्यूंकि हम उस घर को छोड़ना नहीं चाहते थे”. शायद दिल की सुनते तो जवाब होता ..”हाँ”. शायद हम उस घर से तुरंत कहीं और शिफ्ट करना चाहते क्यूंकि अनहोनी घट रही थी.

पर दिमाग ने कहा नहीं. क्यूँ? क्यूंकि उसने सकारात्मकता देखी.

-इनके सीढ़ी से गिरने पर या गैस में आग लगने पर बहुत बड़ा हादसा हो सकता था.

-शान के सीढ़ी से गिरने पर उसकी आँख भी जा सकती थी पर चोट ऊपर लगी.

-मेरे ऑपरेशन की जगह गॉल ब्लैडर फट भी सकता था और वो जानलेवा हो सकता था पर सही समय पर दर्द उठा और ऑपरेशन हो गया. जान बच गयी.  वरना बीमारी तो अन्दर पल ही रही थी.

सच तो ये है कि हमारे बड़े ग्रह टले थे उस घर में. वरना कुछ भी संभव था.

उसके बाद हम उस घर में पूरे साढ़े उन्नीस साल रहे. इनकी रिटायरमेंट तक. प्रमोशन और रैंक के साथ हम बड़े आवास के लिए भी योग्य थे पर हमने कहीं शिफ्ट नहीं किया. उस घर ने हमे बहुत कुछ दिया. मान, सम्मान, सफलता, स्वास्थ... यहाँ तक कि बड़ी बेटी स्वाति की शादी भी उसी घर से हुई. आज हम अपने निजी आवास में हैं पर आज भी वो घर याद आता है... बच्चों को तो बहुत ज्यादा क्यूंकि उनका पूरा बचपन वहीँ बीता था.



एपिसोड -3

वर्ष-1997

जिप्सी में पीछे की सीट पर बैठने का सिस्टम बड़ा गड़बड़ था. आगे की सीट झुकानी पड़ती, और आगे से ही अन्दर जाना पड़ता.

मैंने भी एक बार अन्दर जाने की कोशिश की पर पता नहीं क्यूँ आगे दरवाजे से झुक कर घुसने की बजाये मैं एकदम खड़ी हो गयी,  मेरे सिर का ऊपरी हिस्सा बहुत ही जोर से ऊपर चौखट से टकराया और ईईईईईई. 

मेरी गर्दन पर बहुत तेज झटका लगा और कुछ ऐसा जैसे मेरे सिर के ऊपर से किसी ने जोर से किसी हथौड़े का वार किया हो. अकस्मात् गर्दन बैठ गयी. उसे हिलाना मुश्किल हो गया. तुरंत डॉक्टर के पास ले जाया गया. एक्स रे हुआ. जबरदस्त स्पॉन्डिलाइटिस का ऐलान हुआ.

दर्द बहुत था. गर्दन से पीठ तक और कंधे से बाँहों तक. हिलना डुलना बहुत मुश्किल था. गले में पट्टा डाला गया. डॉक्टर ने गर्दन को रेस्ट देने को कहा.

इस साल शान पहली कक्षा में आ गयी थी. उसकी टाइमिंग सुबह से दोपहर की हो गयी थी. इसीलिए इसी साल मैंने भी कार्मल ज्वाइन कर लिया था. ज्यादा दिन नहीं हुए थे. जो मेरी हालत थी उसमें स्कूल में क्लास लेना बहुत ही पीड़ादायक था. पर लम्बी छुट्टी लेना भी संभव नहीं था. वैसे ही स्कूल जाने लगी. कुछ भी बताने के लिए गर्दन नहीं मोड़ सकती थी. पूरा शरीर मोड़ना पड़ता. लगता कि एक रोबोट पढ़ा रहा है. हाथ उठा कर बोर्ड पर लिखना बहुत ही कष्टदायक था. पर दिल की नहीं सुनी. कमजोर नहीं पड़ी. शरीर तो आराम ही चाहता है. फिर जितना आराम दो उससे भी ज्यादा की मांग करता है. इसीलिए उसे आलसी नहीं बनाया.

डॉक्टर ने मुझे एक और डॉक्टर को रेफेर किया इन्फ्रा रेड रेडिएशन और ट्रैक्शन के लिए. ट्रैक्शन में सर्वाइकल जोड़ों के बीच की जगह बढ़ाने और डिस्क और तंत्रिका जड़ों पर दबाव से छुटकारा पाने के लिए वजन का उपयोग करना शामिल होता है. मैं वहां रोज जाने लगी. डॉक्टर ने जब मेरी एक्स रे रिपोर्ट देखी तो कहा ..”मैडम आपका स्पॉन्डिलाइटिस का टिपिकल केस है. ऐसा जल्दी देखने में नहीं आता. मैं चाहता हूँ कि गाँधी मेडिकल कॉलेज के बच्चे आकर आपका लाइव स्टडी करें. आपकी परमिशन चाहिए”.

लो भाई मैं तो अब गिनी पिग बन गयी थी एक्सपेरिमेंट के लिए. पर सोचा मजा आएगा. एक नया एक्सपीरियंस होगा. चलो मेरा रोग किसी के तो काम आएगा. वो मुझे स्टडी करेंगे तो बाद में दूसरे मरीजों की मदद कर पाएंगे. उनका इलाज कर पाएंगे. मैंने हामी भर दी. तीन दिनों तक मेडिकल स्टूडेंट्स आकर मेरी स्टडी करते रहे.

मुझे कुछ एक्सरसाइज बताई गयी. गर्दन के लिए. तकिया बिलकुल नहीं लेना था सोने में. मेरे स्पॉन्डिलाइटिस को ठीक होने में करीब डेढ़ महीने लगे. ठीक भी हुआ तो होमियोपैथी से. पर हाँ पट्टा लगा कर जाती तो लोग मजाक में कहते ..” देखो अब ये जंगली से पालतू हो गयी. इसके गले में पट्टा लग गया.” और मैं मुस्कुरा देती. खिलखिलाने की आदत थी पर जोर से हंस भी तो नहीं सकती थी न. गर्दन पर असर होता.



एपिसोड – 4

वर्ष- 2001

फ़रवरी की सुबह. समय 6 बजकर 20 मिनट. मैं बच्चों के साथ स्कूल के लिए पीछे के दरवाजे से निकल रही थी. दरवाजे की निचली चौखट से बीचो बीच स्कूटर चढाने का रैंप बना था. उसे बचाते हुए एक किनारे से नीचे पैर रखने की कोशिश की. रखते हुए मेरा बायाँ पैर अकस्मात् ही बुरी तरह मुड़ गया. बैलेंस बिगड़ा और मैं पीछे की ओर धडाम से गिरी. मेरा सिर गैरेज की चौखट से टकराया. पर भला हो मेरे लम्बे घने बालों का और भला हो स्कूल के नियम का जिसमें लम्बे बालों वाले को जूड़ा बना कर आना होता था. जूड़े ने शॉक अब्सॉर्बेर का काम किया और मेरा सिर फटने से बच गया. वीर बाला की तरह मैं झट से उठी. कपडे झाड़े और चल पड़ी स्कूल बस पकड़ने.

बस स्टॉप करीब 300 मीटर दूर था. ठण्ड होने के कारण मैंने पैरों में जूतियाँ पहन रखी थी. चलते हुए बाएं पैर में दर्द हो रहा था पर मैंने उसपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. ठण्ड में अक्सर छोटी चोट भी बहुत दर्द देती है. किसी तरह बस स्टॉप पहुँच गयी. दर्द बढ़ता जा रहा था. वहां कुछ देर खड़े रहने पर वो असहनीय हो चला था. बायाँ पैर कुछ भारी-भारी सा लग रहा था. नीचे देखा तो वो बुरी तरह सूज गया था. मैं चलने की हालत में नहीं थी अब. क्या करूँ ये सोच रही थी. तभी मुझे मेरा पेपरवाला दिखा. साइकिल से आते हुए. बस भी आ गयी थी तब तक. बच्चे उससे गए मैं रुकी रही. पेपरवाले को साइकिल से नीचे उतरने को बोला. उसे तकलीफ बताई और अनुरोध किया कि वो मुझे घर तक पंहुचा दे. उसका कन्धा पकड़ कर लंगड़ी टांग से उछलते हुए घर तक आई. दूसरा पैर अब जमीन पर रखना मुमकिन नहीं था. पतिदेव ने बिस्तर पर बिठा कर जूता खोला. पैर का बुरा हाल था. डॉक्टर को फ़ोन लगाया गया. ज़ाहिर है उतनी सुबह वो क्लिनिक में नहीं आये थे. पर उन्होंने फ्रैक्चर की आशंका जताई. जब तक क्लिनिक नहीं आते तब तक बर्फ की पोटली से सेंकने को कहा. एक पेन किलर दवा देने को कहा.

3 घंटे मैं दर्द में तड़पती रही. फिर डॉक्टर के पास गयी. एक्स रे हुआ. वही निकला जिसका डर था. फ्रैक्चर था पैर में. टखने से उँगलियों को जोड़ने वाली हड्डियों में. ऐसे में पक्का प्लास्टर मुमकिन नहीं था क्यूंकि उससे हड्डी ऊँची नीची जुड़ जाती तो बाद में चलने में प्रॉब्लम आती. कच्चा प्लास्टर किया गया टेप प्लास्टर के साथ जो क्रेप बैंडेज की तरह ही था पर उसमें अन्दर की ओर चिपकाने वाला पदार्थ लगा था. कुछ दवाइयां दी गयीं.

उस समय बुधराम नामक एक हेल्पर हमारे यहाँ किचेन का काम करता. बिलकुल ही बुद्धू किस्म का था वो. कुछ भी उसकी समझ में बड़ी मुश्किल से आता. मैं उसकी पूरी मदद करती वरना खाने में क्या मिलेगा और वो खाने लायक रहेगा या नहीं, ये कहना मुश्किल था. मुझे इस हालत में देख वो दूसरे दिन से बिना बताये काम छोड़ कर भाग निकला. शायद वो डर गया था कि अब सारा काम उसके जिम्मे आएगा.

ये एक और मुसीबत थी. पर मैंने हर मुसीबत को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना सीखा है. हमेशा दिमाग का साथ मांगा है. उपाय निकाला  गया. सब्जी काटने छीलने और धोने में कुछ हेल्प पतिदेव और बच्चों से लेती कुछ पलंग पर बैठ कर करती. एक छड़ी मंगवा ली थी. किचेन में एक कुर्सी रखवा ली थी. सब्जी बनाने में कभी छड़ी के सहारे खड़ी हो उसे चलाती कभी कुर्सी पर बैठ जाती. उठक बैठक चलती रहती. चावल दाल तो आसानी से कूकर में बन जाता पर रोटी की जिम्मेदारी पतिदेव ने ली. चाहे वो बच्चों के टिफ़िन की हो या रात के डिनर की. आपको जानकार आश्चर्य होगा कि वो खाना काफी अच्छा बना लेते हैं और रोटी और पूरी तो बिलकुल गोल-गोल बनाते हैं.

काम चलता रहा. 2 हफ्ते के अन्दर एक खाना बनाने वाली बाई का इन्तजाम भी हो गया था. हालाँकि वो प्रेग्नेंट थी और हर खाने की चीज में अपना हिस्सा जरूर बंटाती क्यूंकि वो कहती कि उसे भी वो चीज़ खाने की इच्छा है और उसके बच्चे की लार न टपके इसीलिए मैं उसे वो खाना घर ले जाने देती. मजबूरी भी तो थी मेरी.  इस बीच दो-तीन बार स्कूल भी गयी अपने बारहवी के स्टूडेंट्स को कुछ जरूरी नोट्स देने जो उनके बोर्ड की परीक्षा में उनके लिए सहायक होते.

6 हफ्ते लगे प्लास्टर हटने में और मुझे पूरी तरह ठीक होने में. शायद ये पहला मौका था जब मैंने टीवी और बिस्तर का पूरा आनंद लिया था कई सालों की व्यस्त ज़िन्दगी के बाद.



एपिसोड 5

वर्ष- 2016

दिसम्बर ख़त्म होने वाला था. आइसेक्ट में 29वें वार्षिक खेल का आयोजन हो रहा था. हमसे भी पार्टिसिपेशन माँगा गया था. मैंने अपने प्रिय खेल बैडमिंटन के लिए अपना नाम दिया था. बैडमिंटन मेरा पसंदीदा खेल हुआ करता था और मैं महाविद्यालय स्तर पर इस खेल की विजेता भी रही थी. मैंने पिछली बार बैडमिंटन गर्भावस्था के अपने 7 वें महीने में खेला था, 1986 में, जब स्वाति मेरे गर्भ में थीं. उसके बाद इतने सालों बाद  मुझे ये सौभाग्य प्राप्त हो रहा था. 28 दिसम्बर को खेलना था. बहुत उत्साहजनक रूप से मैंने अपना नाम दिया था लेकिन दुर्भाग्य से मेरे स्वास्थ्य ने मेरा साथ नहीं दिया क्यूँकि मैच के दिन मेरी कमर में बहुत ज्यादा दर्द था. फिर भी खेल के बारे में मेरा ज्ञान देखकर, मुझे स्कोर कीपिंग करने का कार्य दिया गया. हाँ ये कमान सँभालते हुए भी मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली ही समझ रही थी ... दूसरों की स्कोरिंग करने में खुश थी.

बैडमिंटन की स्कोर कीपिंग करते हुये




अचानक 30 तारीख को लेडीज क्रिकेट खेलने का मन बनाया गया और उसकी अनुमति ली गयी. हमें सिर्फ 5 ओवर खेलने की इजाज़त मिली थी. जब टीम बनने का समय आया तो कोई आगे नहीं आ रहा था. उस समय मैंने पहल की टीम बनाने की. तब तक ठीक महसूस करने लगी थी और लग रहा था कि थोड़ा बहुत दौड़धूप कर लूंगी. सबसे कहा कि मुझे फील्डिंग पोजीशन ऐसी दी जाये जहाँ बॉल आने की सम्भावना कम हो. ये भी कहा कि मुझे आखिरी बल्लेबाज रखा जाये. टीम बनी. खेल 31 दिसम्बर को होना तय हुआ.

31 दिसम्बर की सुबह मैं ऑफिस के अपने कमरे में बैठी थी. तभी एक मैडम मुझे बुलाने आयीं. कहा-“मैडम, सारे लोग फील्ड में प्रैक्टिस कर रहे हैं. आप यहाँ क्यूँ बैठी हैं. चलिए न आप भी”. और मैं चल पड़ी उनके साथ. जरा सा भी अंदेशा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है. वहां एक छोटे से एरिया में हमने बॉल कैच करने की प्रैक्टिस शुरू की. अच्छी घास उगी हुई थी उस स्थान पर. प्रैक्टिस में मज़ा आ रहा था. मैं कैच ले भी पा रही थी. पर तीन चार कैच के बाद एक कैच मेरे से मिस हुआ और बॉल ज़मीन पर लुढ़कने लगी. मैं भी उसके पीछे-पीछे उसे पकड़ने दौड़ी पर अकस्मात् मेरा एक पैर घास से छिपे एक छोटे गड्ढे में पड़ा और मेरा स्पोर्ट्स शू उसमें फँस गया. शरीर गतिमान था और पैर अचानक स्थिर हो गए थे. न्यूटन के गति सिद्धांत ने कमाल दिखाया और मैं औंधे मुँह बहुत ही जोर से ज़मीन पर गिरी. ऐसे कि मेरा दायाँ हाथ कंधे की उलटी दिशा में बुरी तरह मुड़ा और धड़ाम. बहुत तेज दर्द का अहसास हुआ. ऐसा लगा कि वो हाथ गया. लोग मुझे उठाने आये पर मैंने उन्हें रोक दिया. असहनीय पीड़ा हो रही थी और मुझे ऐसा लग रहा था कि अगर मैं उठूँगी तो मेरा हाथ मेरे साथ नहीं उठेगा. वो ज़मीन पर ही रह जायेगा. दो-तीन मिनट मैं यूँ ही पड़ी रही. फिर धीरे से उठी. हाथ मेरे साथ था पर दर्द बहुत ही ज्यादा था. वहीँ पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गयी.

थोड़ी देर में दर्द बहुत बढ़ गया था. हाथ ठंडा और सुन्न होने लगा था. हाथ में सूजन नहीं थी. इससे इतना तो तय था कि हड्डी सही सलामत है. पर फिर आख़िर हुआ क्या था? एक मैडम से बोला “मूव” स्प्रे करने के लिए. वो मुझे एक कमरे में ले गयीं. “मूव” स्प्रे किया. दाहिना हाथ उठाने में बिलकुल असमर्थ थी मैं. उनको ही कहा पतिदेव का नंबर डायल करने को. पतिदेव से बात की. उनसे कहा कि वो मुझे आकर अस्पताल ले चलें और एक ड्राइवर भी साथ ले आयें जो मेरी कार को घर ले जा सके.

कोई ड्राइवर नहीं मिला. पर पतिदेव मुझे लेने आ गए. उनके साथ पास के ही एक अस्पताल में गयी. एक तकलीफ दायक एक्सरे हुआ. तकलीफ दायक इसीलिए क्यूंकि जो हाथ जरा भी नहीं उठ पा रहा था उसे उठा उठा कर एक्सरे लिया गया.  भगवान का आभार कि एक्सरे ने कोई फ्रैक्चर नहीं दिखाया. डॉक्टर ने कहा कि शायद मसल जोर से खिंच गया है. अपने आप कुछ दिनों में ठीक हो जायेगा. कोई और टेस्ट कराने को नहीं कहा. कुछ दवाइयां लिखी और एक वोवेरोन का इंजेक्शन लगवा दिया ताकि दर्द का एहसास कम हो जाये. कुछ समय अस्पताल में ही बैठी रही. इंजेक्शन ने जल्द असर दिखाया. दर्द काफी कम हो चला था. अब घर वापस जाने की बजाय मैंने पतिदेव से कहा कि मुझे वापस ऑफिस छोड़ दिया जाये. अच्छी डांट पड़ी पर मैं ऑफिस वापस जाने के अपने फैसले पर अडिग रही. आख़िरकार मेरी जिद के आगे उन्होंने हार मान ली और उन्होंने मुझे वापस ऑफिस छोड़ दिया. मैंने मैच देखा. और भी खेल देखे. साल को विदा करने के उपलक्ष्य में थोडा डांस भी किया.



अस्पताल से लौटकर - क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरा दाहिना हाथ कोहनी के ऊपर बिलकुल नहीं उठ रहा था? 

यद्यपि मैं बहुत बुरी तरह गिर गयी थी और मेरी दाहिनी भुजा में इस हद तक चोट लगी थी कि मैं अपने कोहनी के ऊपर से अपना दाहिना हाथ उठाने में बिलकुल असमर्थ थी और बहुत दर्द में थी. हाथ पीछे भी बिलकुल नहीं जा पा रहे थे, लेकिन क्या आप इन तस्वीरों को देखकर मेरी इस तकलीफ का अनुमान लगा सकते हैं?  दर्द को मैंने चुनौती के रूप में लिया और घर वापस आने के लिए गाडी में भी बैठ गयी. बहुत मुश्किल से कार का दरवाज़ा बंद कर पायी क्यूंकि वो दाहिनी तरफ ही था. ख़ुशी इस बात की थी की गियर बायीं तरफ था. किसी तरह कार ड्राइव करके घर वापस आ गयी.

लौट कर हालत ऐसी थी कि न सीधे सोते बने, न दाहिनी करवट और न कुछ उठाते. कपड़े बहुत मुश्किल से बदल पाती. उस दर्द को बयाँ करना बहुत मुश्किल है. पर मैं फिर भी ऑफिस आती जाती रही खुद ड्राइव करके. एक भी दिन छुट्टी नहीं की. चुनौती जो स्वीकार की थी.

दवाइयों का ज्यादा असर नहीं दिख रहा था पर काम किसी तरह चला रही थी. फ़रवरी के अंत तक दर्द काफी बढ़ गया था. सोचा फिजियोथेरेपी का सहारा लूं. फिजियोथेरेपी के लिए गयी तो वहां भी 4 महीने देर से आने के लिए डांट पड़ी. पर फिर भी फिजियोथेरेपी शुरू हुई. बहुत दर्द झेलना पड़ता फिजियोथेरेपी कराते वक़्त क्यूंकि वहां उसी हाथ के तरह तरह के एक्सरसाइज करने पड़ते जिसे मैं उठाने में भी डरती थी. ऑफिस में भी दो बार हाथ की एक्सरसाइज करती. पर दर्द बद से बदतर होता चला जा रहा था. अंततः मैंने एक और अस्पताल जाने की ठानी. यहाँ के एक बहुत बड़े अस्थि रोग विशेषज्ञ के पास गयी. उन्हें मेरी हालत देखकर समझ में तो आ गया था कि क्या हुआ है पर कुछ भी फैसला लेने के पूर्व वो चाहते थे कि मैं कंधे की एमआरआई कराऊँ.

एमआरआई हुई. रिपोर्ट लेकर मैं उन्हीं डॉक्टर के पास गयी. देखकर बहुत ही आश्चर्य चकित हो गए. बोले – “मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप इस हालत में काम कैसे कर रही हैं. आपका कन्धा तो बुरी तरह क्षतिग्रस्त है. फिर उन्होंने मेरी रिपोर्ट अपने टेबल पर रखी, एक डमी ली और रिपोर्ट को उस डमी के माध्यम से एक एक करके समझाया. कंधे से सम्बंधित कौन सी “itis” और कौन सी “phytis” नहीं थी मुझे. सब थे. यानि डैमेज ही डैमेज. बुरी तरह से फ्रोजेन शोल्डर की शिकार हुयी थी मैं. फिजियोथेरेपी ने उसे और बिगाड़ दिया था.

मेरी MRI रिपोर्ट - डॉक्टर ही समझ सकते हैं मेरी व्यथा 



मुझे कहा गया हर एक्सरसाइज को मैं बंद करूँ. कंधे को रेस्ट दूं. कुछ ज्यादा पॉवर की दवाइयां दी गयीं. कहा गया कि कॉर्टिकोस्टेरॉयड के इंजेक्शन लगवाने होंगे. पर उसके भयंकर दुष्परिणाम को भी नहीं नाकारा गया.

घर आकर नेट पर इससे सम्बंधित जानकारी को सर्च किया. साइड इफ़ेक्ट ने बुरी तरह डरा दिया. हाथ बिलकुल शिथिल भी हो सकता था. वो भी दायाँ हाथ. उससे अच्छी तो अभी की हालत थी. किसी तरह काम तो चल रहा था. मगर इस दर्द के साथ कब तक?

अंततः मैंने फिर से अपनी स्पॉन्डिलाइटिस की तरह इसके लिए भी होमियोपैथी का सहारा लेने को सोचा. बहुत देर हो चुकी थी. 5 महीने से ज्यादा हो चुके थे. ज़ाहिर है डॉक्टर गुस्सा तो करते ही. पर उन्होंने आश्वासन दिया-“ आप बिलकुल ठीक हो जायेंगी. हाँ इलाज़ लम्बा चलेगा. पांच से छः महीने लगे पर मैं शान के साथ कह सकती हूँ कि आज मैं लगभग 99.9 प्रतिशत ठीक हूँ. जिस होमियोपैथी को लोग कुछ नहीं समझते उसने मुझे दो बार बहुत बड़ी परेशानियों से उबारा.

आगे किसी अकस्मात् के लिए बिलकुल तैयार नहीं पर अकस्मात् तो अकस्मात् है... ईश्वर ही बचाए.



Thursday, 14 June 2018

तुम न जाने किस जहाँ में खो गयी....


28 मई 2016.


मैं ऑफिस में थी. तभी मेरा फ़ोन बजा. मेरे छोटे भाई गौतम का फ़ोन था. ऑफिस के समय मुझे कोई फ़ोन नहीं करता. इस समय फ़ोन आना किसी खतरे का संकेत था. उसने एक शॉकिंग न्यूज़ दी. माँ को ब्रेनस्ट्रोक्स आये थे और पैरालिटिक अटैक भी. आईसीयू में भर्ती किया गया था उन्हें.

पटना बात की. भाभी ने वही बताया. बताया कि माँ ने रात में ब्लड प्रेशर की दवा नहीं ली और सुबह ये हाल हो गया. पापा से उन्होंने पानी पिलाने का इशारा किया था. वो अपना सारा काम खुद करना पसंद करती थी इसीलिए पापा को कुछ तो शंका हुई. फिर जब वो उन्हें पानी पिलाने लगे तो सारा पानी मुँह से बाहर आ गया. लकवे का संकेत था. डॉक्टर को बुलाया गया और उन्होंने माँ को तुरंत हॉस्पिटल में भर्ती करने को कहा था.

माँ और हॉस्पिटल में? मन विचलित हो गया. रिजर्वेशन देखने लगी. बड़ी मुश्किल से 30 मई का एक टिकट मिला. इटारसी से. मुझे अभी अकेले ही जाना था. जल्दी मैं माँ के पास पहुंचना चाह रही थी. माँ ऐसी हालत में? विश्वास नहीं हो रहा था. उन्हें तो हमेशा सुपर लेडी के रूप में ही देखा था हमने.

माँ क्या थी इसे जानने के लिए संक्षिप्त में उनके बारे में कुछ बताना चाहूंगी.

मेरे पापा अनाथ थे. 5 वर्ष की उम्र में उनकी माँ यानि मेरी दादी का देहान्त हो गया था और कुछ सालों बाद दादा का. उनकी बुआ ने उसके बाद उन्हें बहुत कष्ट दिये. इसे देख उनके दूर के रिश्ते के मामा श्री तारकेश्वर प्रसाद, उन्हें अपने साथ घर ले गए और पापा वहीं पले बढ़े. उनलोगों ने पापा को अपने बच्चों की तरह प्यार दिया और उनकी परवरिश की. पापा ने भी उनके परिवार को बिलकुल अपना परिवार माना.

मेरे मामा दादा, जिन्होंने मेरे पापा को पाला, मेरे नाना के घनिष्ठ थे.

मेरे नाना, श्री नागेन्द्र प्रसाद, बिहार के गया शहर में गणित के एक बहुत ही जाने-माने अध्यापक थे. बहुत सम्मानीय थे अपने छात्रों के बीच. बहुत सारे बच्चे उनसे पढ़ने आते. दादाजी ने पापा को भी वहां पढ़ने भेजा.

मेरी नानी जमींदार घराने से थी. माँ अपने 7 भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी. बहुत ही दुलारी, गोरी और सुंदर. उनके फूफा और उनके मामा फ्रीडम फाइटर थे. उनके फूफा, डॉ. केशव प्रसाद सिन्हा ने तो गया कॉन्सपिरेसी केस के लिए अंडमान में काला पानी की सजा भी काटी थी. 

पापा बहुत होनहार और मेहनती थे. क्यूंकि वो नाना से पढ़ने आते तो मेरे मामा लोग उन्हें भैया बुलाते.

नाना को पापा बहुत पसंद आ गए और माँ की शादी उन्होनें पापा से तय कर दी. पापा देखने में बहुत ही साधारण थे,  सांवले भी. अनाथ भी थे और दूसरों के घर में भी पल रहे थे. ऐसे में ज़ाहिर है कि जमींदार ननिहाल की बेटी, यानि मेरी माँ को नाना के इस फैसले से धक्का ही लगा होगा. वो बताती थीं कि स्वर्गीय डॉ. राजेंद्र प्रसाद, हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति, के बेटे का भी रिश्ता उनके लिए आया था. पर माँ ने नाना के फैसले का मान रखा और 14 जून 1954 में उनकी शादी पापा से कर दी गयी.

माँ उस समय मात्र 18 साल की थी और पापा नौकरी विहीन क्यूंकि उनकी उम्र भी मात्र 20 वर्ष की थी. जिस घर में वो आई वो एक तो ससुराल था और वो भी ऐसा ससुराल जहाँ एक अनाथ बच्चा पला था. माँ को पता था कि कुछ भी नहीं था उनका वहां फिर भी सब उनके थे. अथाह प्यार मिला था पापा को वहां, अपनों से भी बढ़कर. बहुत अहसान थे उनके पापा पर. ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी थी पर माँ ने उसे बखूबी निभाया.

माँ जो राजकुमारी की तरह बहुत नाजों से पली-बढ़ी थी और जिनका नाम भी राजकुमारी था, ने अपने काम, सेवा और व्यवहार से सबका दिल जीत लिया. सबकी चहेती बड़ी बहु बन गयी क्यूंकि मामा दादा के बेटे पापा से उम्र में छोटे थे.

पापा चूंकि नौकरी में नहीं थे इसीलिए ये तय किया गया कि जबतक पापा की नौकरी नहीं लगती तबतक बच्चे नहीं आयेंगे उनकी ज़िन्दगी में. बड़ों को ये पता नहीं था क्यूंकि तब आज की तरह खुलेआम ये सब बातें नहीं होती थी. इसीलिए माँ को बच्चे होने के लिए तरह तरह के व्रत रखने को कहा गया.

कौन-कौन से व्रत नहीं किये माँ ने. छठ, तीज, नवरात्रि, वट सावित्री, एकादशी, मंगल, गुरु, शुक्र शनि और भी अनेक. किस-किस भगवान को नहीं पूजा. बच्चों के लिए नहीं, ऐसे भी. बहुत आस्था थी उनकी ईश्वर में. काम के साथ-साथ ईश्वर की सेवा के लिए भी वक़्त निकाल लेतीं.

पर हमें माँ ने कभी किसी भी पूजा और व्रत के लिए बाध्य नहीं किया. नहाने-धोने और पूजा में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया. उनका कहना था कि हम भगवान को अपना पिता मानते हैं और भगवती को माँ. तो क्या माँ बाप के पास जाने के लिए नहाने की आवयश्कता होती है? वो तो अपने बच्चे को किसी भी रूप में स्वीकारते हैं. बस दिल में सच्ची श्रद्धा और भक्ति होनी चहिये. मन निश्छल होना चाहिए, छल-कपट से दूर. उपवास भी मन का भ्रम है. उपवास करना है तो हमे ‘बुराई’ से करनी चाहिए.

पंडित स्त्रियों को हनुमान जी के पास नहीं जाने देते पर आपको आश्चर्य होगा कि पटना के स्टेशन के प्रसिद्ध महावीर स्थान के दोनों जोड़े हनुमान जी ने कई सालों तक माँ के हाथों से बनाये हुए चोंगे ही पहने. राम सीता लक्ष्मण के भी कपड़े हमेशा वही बनाती.

हमारा जन्म पापा की नौकरी लगने के बाद हुआ. माँ की पूजा और पाठ यथावत चलते रहे. मेरे बड़े भाई और मेरा, दोनों का जन्म मंगल को हुआ था और क्रमशः कार्तिक और चैती छठ के समय. इसीलिए मंगल और छठ का हमारे यहाँ खासा महत्व रहा.  माँ ने 1954 से लेकर 2010 तक, 56 साल लगातार छठ किया. मेरे घर में कोई मेहमान, मेहमान नहीं होता था. लोगों की अच्छी आवभगत करना और उन्हें अच्छा बना कर खिलाना माँ को बहुत पसंद था. कोई भी घर आता तो उसका खुले दिल से स्वागत होता. खाना खाए बिना कोई नहीं जाता. अपनापन और प्यार भरा था उनकी झोली में. सब में बांटती. सबकी अपनी थीं वो. हमारे घर में काम करने वाले भी हमारे मामा, चाचा, बुआ या मौसी होते. सबका आदर करना सिखाया माँ ने. जात-धर्म की बातें नहीं होती थी हमारे घर में. सब एक हैं ये ही जाना हमने. हमारे घर में जिस तरह होली दीवाली मनती वैसे ही जब मौका मिले तब रोजा अफ्तारी भी करायी जाती. जो था उसमें ही खुश रहती माँ. हमेशा संतुष्ट. कभी किसी चीज़ की मांग करते नहीं देखा उन्हें हमने.

क्यूंकि पापा ने अपने जीवन में माँ बाप की कमी महसूस की थी और कई बार अपनी इच्छाओं को भी दबाया था इसलिए उन्होंने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि हमें कोई कमी महसूस न हो. माँ ने पापा के साथ मिलकर तिनका तिनका जोड़कर आशियाना बनाया. इस में उन दोनों ने हमारी जरूरतों का पूरा ख्याल रखा और इसमें माँ ने पापा का पूरा साथ दिया. अपनी पसंद, अपनी जरूरत – सभी को एक किनारे रख दिया. बहुत बचत करनी होती. अनावश्यक खर्च कि सामर्थ्य हममें नहीं थी पर हमारी पढ़ाई-लिखाई में कोई कमी नहीं की गयी. बेटे और मैं बेटी, हम सब सामान थे अपने घर में-दोनों को बराबर अधिकार और बराबर आज़ादी. जब हम बड़े हुए, अपने पैरों पर खड़े हुए, और कुछ देना भी चाहा तो माँ ने वापस अपनी तरफ से अपना आशीर्वाद कहकर हमें वो वापस कर दिया.

शादी के बाद भी मामा दादा ने उनकी पढ़ाई जारी रखी और उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित भी किया. पापा ने भी साथ दिया. माँ उस ज़माने की एमए थी, दर्शनशास्त्र में. बाद में एलएलबी भी किया. पर नौकरी की इच्छा उन्हें कभी नहीं रही. उन्होनें खुद को घर परिवार और अपने भगवान की सेवा तक ही सीमित रखा. तरह तरह के व्यंजन बना कर खिलाना उनकी खासियत थी. इसके लिए वो हमेशा, हर घड़ी, तत्पर रहती. कभी थकती नहीं. बहुत ही स्वादिष्ट भोजन बनाती थी वो. राज पूछा जाता तो बोलती, खाना नियम और मसाले से नहीं बनता है. दिल डालना पड़ता है. भावनाएं डालनी होती हैं.

हाथ कांपते थे इस उम्र में, पर रसोई में जाना उन्हें फिर भी अच्छा लगता. कांपते हाथ भी लोगों की पसंद के व्यंजन बनाने से उन्हें डिगा नहीं पाते.

बीमार पड़कर बिस्तर पकड़ते हमने उन्हें नहीं देखा. पता नहीं कहाँ से लाती थी वो इतनी उर्जा. बुढ़ापे वाले रोग जैसे डायबिटीज, आर्थिराइटिस, आलस या थकान उन्हें छू भी नहीं गए थे. इस उम्र में भी वो पैरों पर बैठ जाती और हसुये से सब्जी काट लेती. वेस्टर्न स्टाइल के टॉयलेट की उनको कभी जरूरत नहीं पड़ी.

उन्हें आइसक्रीम बहुत पसंद थी. जिस रात की सुबह उन्हें अटैक आया उस रात भी उन्होंने आइसक्रीम खायी थी.

उनकी चोटी बहुत लम्बी थी और वो बाल कटवाने के पक्ष में नहीं थी. पता नहीं कुछ डर सा था उनके मन में. कहती थी सुहागनों के बाल नहीं काटे जाते. अशुभ होता है. इस उम्र में भी हम उनकी सहूलियत का हवाला देते पर बाल कटवाने के वो सख्त खिलाफ थीं.

मेरे मंझले भाई का जन्म घर पर ही हुआ था. बाकी हम तीन भाई बहनों के जन्म को छोड़कर और कभी भी हॉस्पिटल नहीं गयीं माँ. सारी डिलीवरी नार्मल थी. बहुत घबराती थी हॉस्पिटल के नाम से. बहुत ही एक्सीडेंट प्रोन थी. फिसलने का तो जैसे ठेका ले रखा था. कई बार हाथ-पैर तोड़े उन्होंने अपने. पर देसी इलाज़ और वैद्य हकीम से ही खुद को ठीक करती. उनकी हाथ की हड्डियाँ टेढ़ी-मेढ़ी जुड़ी - ये मंजूर था उन्हें, दर्द सहना मंजूर था पर हॉस्पिटल जाना नहीं.

आज वो माँ हॉस्पिटल में थी.

मैं 31 मई को जैसे ही पटना पहुँची थी, नहा धोकर तुरंत माँ को देखने हॉस्पिटल पहुँची. बिलकुल असहाय पड़ी थी वो. हिलने-डुलने में असमर्थ. अपनी आँखों से एकटक हमें देखती हुई. वही प्रेम छलकता हुआ उनकी आँखों से. नर्स ने उनके बाल काट दिए थे. उनकी नाक में ऑक्सीजन लगा था और गले में पाइप. दोनों हथेलियों को पट्टियों से बाँध दिया गया था ताकि पाइप न खींच सके वो. हाथों को भी हॉस्पिटल बेड से बाँध दिया गया था. फिर भी हाथ उठा कर शायद आशीर्वाद देना चाहती या फिर अपनी पट्टी हटवाना - हम समझ नहीं पाये थे.

उनके सर पर हाथ फिराया. बच्ची लग रही थी वो. बहुत ही मासूम.

मुझे मेरे बड़े भाई ने बताया कि डॉक्टर ने उनका एमआरआई कराने को बोला है पर पापा नहीं मान रहे थे. डॉक्टर को ब्लड क्लॉट की सही जानकारी चाहिए थी जो नार्मल सीटी स्कैन से नहीं मिल रही थी. इतना पता था कि कई क्लॉट्स बने हैं और ब्लॉकेज भी, जिसके कारण उनको लकवे का अटैक आया था और बायाँ अंग पैरालाइज हो गया था. जीभ भी. इसीलिए खुद कुछ खा नहीं सकती थी.

माँ कमज़ोर थी और तकलीफ में भी थी इसीलिए पापा उन्हें एमआरआई के लिए भेजना नहीं चाहते थे. मैंने पापा को समझाने की कोशिश की. अंततः वो मान गए. एमआरआई के लिए दूसरे सेण्टर ले जाना था जो वहां से करीब 7-8 किलोमीटर दूर था. रात करीब 11:30 बजे का समय नियत किया गया उनको ले जाने का क्यूंकि तब ट्रैफिक नहीं होता. पापा एम्बुलेंस में बैठने को तैयार नहीं हुए माँ के साथ. वो बहुत कमजोर पड़ गए थे. मेरा बड़ा भाई घर पर बच्चों के साथ था. भाभी भी थी पर वो भी बहुत घबरायी हुयी थी. मुझे भगवान ने शक्ति दी और मैं माँ के साथ एम्बुलेंस में बैठी. पापा और भाभी पीछे से गाड़ी से आ रहे थे.

ऑक्सीजन सिलिंडर भी था एम्बुलेंस में. क्यूंकि एमआरआई रूम में धातु की चीजें नहीं जाती अतः माँ की बिछिया और एक तावीज़ जो वो गले में हमेशा पहनती थी, उतार दी गयी. तावीज़ उतारते समय मेरा दिल जोरों से धड़का था क्यूंकि माँ को उसपर बहुत विश्वास था. पर उस बुरे ख्याल को झटके से दूर किया. सिलिंडर क्यूंकि अन्दर नहीं आ सकता था इसीलिए उसे बाहर रखा गया और एक लम्बी पाइप के सहारे ऑक्सीजन की सप्लाई जारी रखी गयी.

मैं रूम में ही थी माँ के साथ. माँ मशीन के अन्दर गयीं. डॉक्टर साथ के एक कांच के केबिन से उन्हें मॉनिटर कर रहे थे. 3-4 मिनट ही हुए होंगे. एकाएक वो बदहवास से भागते हुए एमआरआई रूम में आये. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती, उन्होंने माँ को खींच कर बाहर निकाला. उनकी सांसें और धड़कन चेक की. दोनों बंद हो चुकी थीं.

मैं जड़वत थी. माँ की तावीज मेरे हाथ में थी.

डॉक्टर्स माँ को रीवाइव करने में लग गए. हार्ट पंप किया जाने लगा. सांसें फिर से लाने के लिए मैकेनिकल आर्टिफ़िशिअल रेस्पीरेशन दिया जाने लगा. जो सुना और फिल्मों में देखा था वो मेरे सामने हो रहा था. मेरी माँ के साथ. उन्हें बचाने के पूरे प्रयास किये जा रहे थे.

मैंने डॉक्टर से कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा. मैं अपने सवालों से उनका ध्यान बंटाना नहीं चाहती थी. अभी माँ का बचना जरूरी था. मैं चुपचाप बुत बने सब देखती रही. प्रार्थना में मेरे हाथ बंधे थे. दिल तेजी से धड़क रहा था.

एकाएक माँ का सिर उछला. उनकी साँस जोरों से अन्दर जाती सुनाई दी. साँसे आने लगी थी. धड़कन शुरू हो गयी थी. डॉक्टर ने एमआरआई रोक दी. माँ को वापस हॉस्पिटल भेजा गया. पापा को ज्यादा नहीं बताया उस समय. पर वो स्थिति भांप चुके थे इसीलिए उन्होनें भी ज्यादा कुछ नहीं पूछा. मैं माँ के साथ फिर से एम्बुलेंस में थी. इस बार उनकी मॉनिटरिंग डिवाइस मेरे हाथों में थी.

हॉस्पिटल पहुँच कर उन्हें तुरंत वेंटीलेटर पर डाला गया. डॉक्टर ने हमें रुकने को कहा. कहा कि कंडीशन क्रिटिकल है और 3-4 घंटे वो माँ को ऑबसर्व करेंगे. तभी कुछ बता पायेंगे. 

माँ जीवन और मौत के दोराहे पर थी. मैं अपने आप को कोस रही थी. एमआरआई के लिए उन्हें ले जाना शायद हमारी सबसे बड़ी भूल थी. क्यूँ किया मैंने ऐसा? सबकुछ हाथ से फिसलता नज़र आ रहा था.

रात भर हम हॉस्पिटल में चहलकदमी करते रहे. दिल किसी गलत आशंका से भयभीत हो रहा था. कब क्या खबर आ जाये. दिल भी अजीब है. मुसीबत की घड़ी में हमेशा गलत सोचता है. हमेशा डराता है.

करीब पौने चार बजे हमें खुशखबरी सुनाई गयी कि माँ खतरे से बाहर है. हम उन्हें देख सकते हैं. हमने दौड़ लगायी. उन्हें सोता देख सुकून हुआ. वेंटीलेटर अभी जरूरी था. हम घर लौट आये.

दो दिन बाद वेंटीलेटर हटा दिया गया था. हम रोज सुबह शाम उनके पास जाते. कभी उनकी तबियत में सुधार नज़र आता तो कभी तबियत फिर से डाउन हो जाती. कभी बुखार होता तो कभी ठीक रहतीं. इस बीच उनकी फिजियोथेरेपी भी शुरू हो गयी थी. पैर और हाथ दोनों सूज गए थे. कुछ बंधे बंधे कुछ ड्रिप्स और इंजेक्शन्स के कारण. फिर भी दवाइयों से अच्छा रेसपाॅन्ड करने लगी थी. हमने डॉक्टर से अनुमति लेकर उन्हें होमियोपैथी भी देना शुरू किया था. उसे खिलाना नहीं सिर्फ सिर पर लगाना होता था. बीच में माँ का हीमोग्लोबिन भी कम हो गया था. पर इसके लिए मैं थी न उनकी बेटी, उसी ब्लड ग्रुप के साथ, अच्छी हीमोग्लोबिन परसेंटेज के साथ. लेकिन उसकी जरूरत नहीं पड़ी. माँ ने लेना सीखा ही नहीं था न.

मन आशावान हो चला था. इस बीच हम हॉस्पिटल टाइप बेड का भी पता करने लगे थे. नर्स के बारे में भी पूछताछ जारी थी ताकि हम थोड़ा ठीक होने पर माँ को घर ले जा सकें और उनकी अच्छे से  देखभाल हो सके. हमें पता था माँ बहुत तकलीफ में थी. हम उनके साथ रहकर उनकी सेवा करना चाहते थे इसीलिए हम उनको घर लाने की तैयारियां कर रहे थे.

माँ पापा की शादी की वर्षगांठ आने वाली थी. 14 जून को. हम रोज माँ को प्रोत्साहित करते. रोज बोलते जल्दी अच्छी हो जाओ हम ऐनिवर्सरी एक साथ मनाएंगे घर पर. सुबह शाम ये बोलते भी और यही उम्मीद भी करते.

मेरा छोटा भाई बीच में आया था. तीन चार दिन रहकर चला गया. मंझला नहीं आया था. माँ की आँखें रोज उसे ढूंढती. उसके प्रतीक्षा में लगतीं. मुझे भी छुट्टी लिए हुए काफी दिन हो गए थे. नौकरी मार्च के बीच में ज्वाइन की थी और मई के अंत से लगातार छुट्टी पर थी. कभी-कभी उसकी चिंता भी सताती. पर फिर लगता माँ को इस हालत में छोड़कर कैसे जाऊं. पीछे में कुछ इमरजेंसी हुई तो जल्दी कैसे आ पाऊँगी. फिर भी सोचा कि 15 का टिकट कराती हूँ. एक हफ्ते रहकर आ जाउंगी. टिकट कराया भी. वेटिंग था. सोच लिया था अपने आप कन्फर्म हुआ तो जाउंगी अन्यथा नहीं.

रोज का हॉस्पिटल का बिल बहुत आता. पापा और बड़े भाई से पूछा कि पैसे की ज़रुरत हो तो हमसे ले लें. पर उन्होनें कहा कि मेडिकल बीमा है. जब लगेगा तो बता देंगे.

मैं रोज फेसबुक पर माँ की दशा का अपडेट करती. बहुतों के हाथ उनके लिए दुआ में उठे थे.

10 जून को डॉक्टर्स ने हमें कहा कि माँ की हालत में काफी सुधार है. दो दिनों से बुखार भी नहीं आया था. फ़िज़ियोथेरेपिस्ट भी उनके पैरों के मूवमेंट से संतुष्ट दिखे.

पर 11 जून को मुख्य डॉक्टर ने हमें बुलाया. बोला कि ले जाना चाहते हैं तो इन्हें ले जाइये. सबकुछ हटा देते हैं. कम से कम घर में पहुंच कर जायेंगी. इनका बचना अब मुश्किल है. अब कोई होप नहीं है.

सन्न रह गया दिल. सुन्न हो गया दिमाग. “ये डॉक्टर पागल हैं क्या? ऐसा कैसे बोल सकते हैं? बाकी सारे डॉक्टर्स बोल रहे हैं माँ ठीक हो रही हैं. उनकी रिपोर्ट अच्छी आ रही है. फिर ये ऐसा कैसे बोल रहे है? डॉक्टर होकर ऐसी नकारात्मक बातें". बहुत गुस्सा आ रहा था. क्या कोई इस तरह से जान बूझ कर किसी को मौत के मुँह में धकेल देगा उसके सारे सपोर्ट सिस्टम हटाकर? ये कुछ भी बोल रहे हैं. उनसे हमने बिलकुल मना कर दिया और कहा कि वो डॉक्टर होकर ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं. उन्होंने कहा डॉक्टर हूँ इसीलिए सोच रहा हूँ. बहुत गालियाँ दी थी हमने डॉक्टर को उस दिन.

पर दिल डरने लगा था. इस आशंका से कांप उठता कि कहीं ऐसा ही तो नहीं होगा. 11 और 12 अच्छे गुजरे. 12 की रात हमने पापा से कहा कि हम शादी की सालगिरह हॉस्पिटल में मिठाई बांटकर मनाएंगे. आप परमिशन ले लीजिये. माँ बीमार ही सही पर ये 62वीं सालगिरह थी उनकी.

12 को ही बीमा वाले को बिल भेजने के लिए उसका हिसाब करते हुए बड़े भाई ने मुझसे कहा था - बस 13 जून तक बीमा का पैसा ख़त्म हो जायेगा. फिर तुमलोगों को मदद करनी होगी.

13 जून भी अच्छे से बीता. हम 14 जून की सुबह माँ से मिलने की तैयारी कर रहे थे. आज माँ पापा दोनों की 62वीं सालगिरह थी. रास्ते से मिठाई लेकर जाना था. हॉस्पिटल में बांटना था. पापा को सुबह सुबह विश किया था. उनका आशीर्वाद लिया था. अब माँ का आशीर्वाद लेना था.

मैं नहा कर निकली ही थी कि फ़ोन की घंटी बजी. हॉस्पिटल से फ़ोन था. वहां से कभी फ़ोन आता नहीं था. जाहिर था कुछ सीरियस था. कांपते हाथों से फ़ोन उठाया. उधर से आवाज़ आई - “जल्दी से आ जाइये. जितनी जल्दी हो सके.”

कहना नहीं होगा कि हम 5 मिनट के अन्दर गाडी में सवार थे. मेरा बड़ा भाई भी साथ था. किसी अज्ञात भय से दिल जोरों से धड़क रहा था. वहां पहुंचे तो डॉक्टर पहले बात करने लगे. बोले माँ की हालत बहुत नाज़ुक है. पिछली रात से पेशाब नहीं हुआ है और शरीर ठंडा पड़ गया है. नब्ज़ बंद हो गयी है. माँ के बचने पर उन्होने नाउम्मीदी जताई. उन्होनें कहा कि वैसी हालत में वेंटीलेटर लगाना भी व्यर्थ है फिर भी अगर हम कहें तो वो वेंटीलेटर लगा सकते हैं अंतिम बचाव प्रयास के रूप में. हमलोगों ने उनसे पहले माँ से मिलने की इज़ाज़त मांगी.

माँ की आँखें खुली थीं. वो हमारा इंतज़ार कर रहीं थीं. हमने उनके पांव छूकर आशीर्वाद लिया. फिर उनके सिर पर हाथ फेरकर उन्हें शादी के सालगिरह की मुबारकबाद दी. और अचानक माँ की आँखें बंद हो गयीं. मशीन की ओर देखा. हार्ट बीट 80 से 70 हुई फिर 70 से 60-50-40-30-20 ... मात्र 10 सेकंड में. मैं जोर से चिल्लाई. डॉक्टर दौड़ कर आये. गर्दन में कोई इंजेक्शन लगाया. तुरंत वेंटीलेटर लगाया गया. मशीन अपने नार्मल रीडिंग पर कुछ क्षणों के लिए लौटी. मैंने माँ का हाथ अपनी हाथों में लिया. बिलकुल ठंडे पड़ गये थे. नब्ज़ टटोलने की कोशिश की. नहीं मिली. डॉक्टर ने कहा अब नहीं मिलेगी. सिर्फ गर्दन पर मिलेगी. मैंने पूछा - “मतलब?” उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा. मुझे गले से लगाया और सर हिलाया. उन्होंने इशारा किया कि माँ अब जाने वाली हैं. मुझसे कहा कि उन्हें मैं सबसे हिम्मत वाली लग रही हूँ. इसीलिए मैं सभी को खबर कर के माँ के पास बुला लूं. जल्द से जल्द.

मैं जड़ थी. बिलकुल मैकेनिकल हो गयी. भावनाएं कहाँ चली गयीं पता नहीं. आँख में आँसू नहीं थे. शायद तथ्य को स्वीकार लिया था. एक बेटे की तरह पली थी उसी तरह पेश आ रही थी. बहुत पहले मैंने अपनी सासू माँ की मृत्यु पर अपने पतिदेव से पूछा था - “आपने माँ का दाह संस्कार कैसे कर लिया? मोह नहीं लगा? रोना नहीं आया? आपकी इतनी प्यारी थी वो कि फ़ोन पर उनकी आवाज़ सुनकर ही रोने लगते थे आप. ” और उन्होंने कहा था - “मैं सबकुछ धर्म समझ कर कर रहा था.” आज मेरे सामने भी ऐसी ही परिस्थितियां थीं. मुझे जवाब मिल गया था.

सबसे पहले भाभी को फ़ोन किया. फिर बाकियों को खबर करने में लग गयी. नर्स ने पापा को कहा कि वो माँ को आखिरी बार जीवित में सिन्दूर लगा दें उनकी शादी के सालगिरह के उपलक्ष्य में. पापा फट पड़े. सिन्दूर लगाया. माँ के सिर पर हाथ फिराया और बोले-“मैंने इसका ठीक से ख्याल नहीं रखा. इसने इतना किया हमारे लिए”. पापा के दिल की पीड़ा का अंदाज़ा मैं लगा सकती थी. कितना कष्ट हो रहा होगा उन्हें तब. तब जब उनकी जीवनसाथी 62 वर्षों तक उनका साथ निभा कर उनसे दूर जा रही हो, उन्हें अलविदा कह रही हो. जब समय को पलटा न जा सके और सिर्फ बीते दिनों को याद किया जा सके जब सुख दुःख दोनों ने मिलकर काटे थे. पर अब क्या. अब तो सब ख़त्म हो चुका था. हाथ थाम कर लाये थे अब तो कंधे पर उठाने की बारी थी.  

भाभी आ गयीं थीं. मैंने अपने ड्राइवर अमीन, जो एक मुस्लिम है पर जिसे माँ बेटे की तरह मानती थीं, से गंगाजल मंगवाया माँ के लिए. इतना पूजा-पाठ करती थीं. इतनी सरल और शुद्ध आत्मा थीं. गंगाजल मुँह में लिए बिना कैसे विदा होतीं इस संसार से. गंगाजल पिलाने को जैसे आगे बढ़ी पापा और भाई जोर से चिल्लाये - “ये क्या कर रही हो? ये कैसे समझ रही हो कि वो जा रहीं हैं?” मैं रुक गयी. फिर पापा ने कहा – ‘नहीं बेटा, ठीक कर रही हो, पिला दो.” मैंने गंगाजल माँ के मुँह में डाला.

कुछ सेकंड्स में ही मशीन की सारी लाइनें सीधी हो गयीं. “Heartbeat not detected” , “pulse not found”, “no breathing” के मेसेज और साँसें थमी हुई.  दिल फिर भी धड़कने का भ्रम दे रहा था. डॉक्टर ने कहा ‘वो जा चुकी हैं. ये मशीन के कारण हैं जिसपर हम उन्हें अभी आधे घंटे और रखेंगे. रीवाइवल की आशा में.” 2 बजकर 40 मिनट हुये थे तब, जब पापा ने माँ को अंतिम साँस लेते हुये देखा था.

फिर डॉक्टर ने हमें अपने पास बुलाया. बोला आगे का क्या सोचा है. बॉडी अभी यहीं रखेंगे या ले जायेंगे?

बॉडी? इस शब्द ने मुझे अन्दर से झझकोर दिया. वो मेरी माँ हैं. एक सेकंड में एक प्यारे रिश्ते से एक बॉडी? मैं फफक-फफक कर रो पड़ी. फिर आंसू नहीं थम रहे थे.

शाम को माँ को घर लाया गया. जिस दिन इस घर में ब्याह कर आई थी, उसी दिन विदा हुईं. अपनी शादी के 62वें वर्षगाँठ पर. इतना लम्बा साथ विरलों को ही नसीब होता है. गंगा दशहरा का पवित्र दिन था. सुहागन गयी थीं भरे पूरे परिवार के बीच से. जिस माँ को मुँह पर कपड़ा रखने से सफोकेशन होता था वो आज आराम से मुँह ढंके सोयी पड़ी थीं.

माँ ने दर्शन शास्त्र सिर्फ पढ़ा नहीं था. जीवन दर्शन अपनाया भी था. माँ सबसे बड़ी थीं पर उनके सभी भाई-बहन उनके सामने गए. ऐसे समय पर उनका धैर्य देखते बनता था और वेदना को छिपाने की उनकी कला अतुलनीय थी. माँ के जाने के साथ नाना का आखिरी कुल दीपक बुझ गया था.

कभी किसी से कुछ नहीं लिया इस बार भी नहीं. 13 को पैसे ख़त्म होने वाले थे. 14 की दोपहर वो चली गयीं. हमसे कोई सेवा नहीं ली. खुद सेवा करती हुयी निकल गयीं.

एक और बात बताऊँ? माँ ने हमपर जीवन भर अपना सबकुछ न्योछावर किया पर उनका नाम कहीं नहीं है घर के सामने जबकि नेम प्लेट में हम सब हैं. और ये सब इसीलिए कि माँ ने ये भी नहीं चाहा.

मुझे भी 15 के पहले मुक्त कर दिया नौकरी पर लौटने के लिए.

हॉस्पिटल से डरती थीं. उन्हें शायद पता था कि एक बार वहां जायेंगीं तो वापस नहीं आयेंगीं. उनका डर सही साबित हुआ था.

बाल नहीं कटवाना चाहती थीं. तावीज हमेशा पहने रखा. बाल गए, तावीज गया और उनके साथ-साथ वो भी.

सिर्फ एक आस लेकर गयी माँ – अपने मंझले बेटे को अपने अंतिम क्षणों में नहीं देख पायीं. ये कसक भाई के दिल में भी कहीं न कहीं होगी कि समय रहते माँ के दर्शन नहीं कर सका वो.

मैंने अपने हेड को फ़ोन किया. कहा, सर सबकुछ होते हुए भी हम माँ को नहीं बचा पाए. उन्होंने कहा- “मैडम, आप अंतिम समय में उनके साथ थी. ये क्या कम है? कितनों को ये सौभाग्य प्राप्त होता है?”

कितना अजीब इत्तेफाक है.

16 तक सबके आने के लिए हम रुके. माँ को एक कास्केट में रखा गया था. अमीन लेकर आये थे रेड क्रॉस से. 16 को हमने माँ को अंतिम विदाई दी. वो बहुत ही खूबसूरत लग रही थीं पूरे साजो श्रृंगार के साथ लाल साड़ी और चुनरी में. नयी दुल्हन की  तरह खोइंचे (आँचल में बंधी वो शुभ चीजें जो दुल्हन को मायके से देकर विदा किया जाता है) के साथ. हमने उनकी पसंद की हर चीज़ का ध्यान रखा था. कई लोग उनका आशीर्वाद लेकर गए. इतना लम्बा सुहाग और साथ और ऐसी किस्मत तो सभी चाहते हैं. हम चारों भाई-बहन ने उन्हें कंधा दिया. मैंने भी. उन्होंने अपने कंधे का इंतजाम शुरू से ही कर लिया था. पर मैं घाट पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी.

पंडित जी ने कहा – “माँ जी बहुत धर्मात्मा थीं. सुहागन गयीं, अपनी शादी के दिन गयीं, गंगा दशहरा के दिन गयीं, भरे पूरे परिवार से गयी, बिना सेवा लिए गयीं और मुख से उनके प्राण निकले. उन्हें तो मोक्ष की प्राप्ति हो गयी.” पंडित जी को क्या मालूम कि मोक्ष कि प्राप्ति तो माँ को जीवन में ही हो गयी थी.

बस माँ अपना आशीर्वाद हमपर बनाये रखें. हमें भी ऐसा ही सौभाग्य प्राप्त हो.

माँ.... जहाँ रहो खुश रहो.


  


पापा माँ के साथ आखिरी क्षणों में 

माँ अपनी दो बहनों और नानी के साथ


माँ को आइसक्रीम बहुत पसंद थी

नानी से शान की आखिरी मुलाकात अप्रैल में - दिल्ली में



माँ की लम्बी चोटी

अगस्त 2013-जब माँ आखिरी बार भोपाल आई थी और विदा हो रही थीं

जब वो हमें छोड़ चलीं

दुल्हन आयीं दुल्हन गयीं - उसी तारीख को 

अमीन जिसे माँ ने अपना बेटा माना

माँ का नाम नहीं

माँ,..प्यारी माँ... अम्मा