Thursday, 14 June 2018

तुम न जाने किस जहाँ में खो गयी....


28 मई 2016.


मैं ऑफिस में थी. तभी मेरा फ़ोन बजा. मेरे छोटे भाई गौतम का फ़ोन था. ऑफिस के समय मुझे कोई फ़ोन नहीं करता. इस समय फ़ोन आना किसी खतरे का संकेत था. उसने एक शॉकिंग न्यूज़ दी. माँ को ब्रेनस्ट्रोक्स आये थे और पैरालिटिक अटैक भी. आईसीयू में भर्ती किया गया था उन्हें.

पटना बात की. भाभी ने वही बताया. बताया कि माँ ने रात में ब्लड प्रेशर की दवा नहीं ली और सुबह ये हाल हो गया. पापा से उन्होंने पानी पिलाने का इशारा किया था. वो अपना सारा काम खुद करना पसंद करती थी इसीलिए पापा को कुछ तो शंका हुई. फिर जब वो उन्हें पानी पिलाने लगे तो सारा पानी मुँह से बाहर आ गया. लकवे का संकेत था. डॉक्टर को बुलाया गया और उन्होंने माँ को तुरंत हॉस्पिटल में भर्ती करने को कहा था.

माँ और हॉस्पिटल में? मन विचलित हो गया. रिजर्वेशन देखने लगी. बड़ी मुश्किल से 30 मई का एक टिकट मिला. इटारसी से. मुझे अभी अकेले ही जाना था. जल्दी मैं माँ के पास पहुंचना चाह रही थी. माँ ऐसी हालत में? विश्वास नहीं हो रहा था. उन्हें तो हमेशा सुपर लेडी के रूप में ही देखा था हमने.

माँ क्या थी इसे जानने के लिए संक्षिप्त में उनके बारे में कुछ बताना चाहूंगी.

मेरे पापा अनाथ थे. 5 वर्ष की उम्र में उनकी माँ यानि मेरी दादी का देहान्त हो गया था और कुछ सालों बाद दादा का. उनकी बुआ ने उसके बाद उन्हें बहुत कष्ट दिये. इसे देख उनके दूर के रिश्ते के मामा श्री तारकेश्वर प्रसाद, उन्हें अपने साथ घर ले गए और पापा वहीं पले बढ़े. उनलोगों ने पापा को अपने बच्चों की तरह प्यार दिया और उनकी परवरिश की. पापा ने भी उनके परिवार को बिलकुल अपना परिवार माना.

मेरे मामा दादा, जिन्होंने मेरे पापा को पाला, मेरे नाना के घनिष्ठ थे.

मेरे नाना, श्री नागेन्द्र प्रसाद, बिहार के गया शहर में गणित के एक बहुत ही जाने-माने अध्यापक थे. बहुत सम्मानीय थे अपने छात्रों के बीच. बहुत सारे बच्चे उनसे पढ़ने आते. दादाजी ने पापा को भी वहां पढ़ने भेजा.

मेरी नानी जमींदार घराने से थी. माँ अपने 7 भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी. बहुत ही दुलारी, गोरी और सुंदर. उनके फूफा और उनके मामा फ्रीडम फाइटर थे. उनके फूफा, डॉ. केशव प्रसाद सिन्हा ने तो गया कॉन्सपिरेसी केस के लिए अंडमान में काला पानी की सजा भी काटी थी. 

पापा बहुत होनहार और मेहनती थे. क्यूंकि वो नाना से पढ़ने आते तो मेरे मामा लोग उन्हें भैया बुलाते.

नाना को पापा बहुत पसंद आ गए और माँ की शादी उन्होनें पापा से तय कर दी. पापा देखने में बहुत ही साधारण थे,  सांवले भी. अनाथ भी थे और दूसरों के घर में भी पल रहे थे. ऐसे में ज़ाहिर है कि जमींदार ननिहाल की बेटी, यानि मेरी माँ को नाना के इस फैसले से धक्का ही लगा होगा. वो बताती थीं कि स्वर्गीय डॉ. राजेंद्र प्रसाद, हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति, के बेटे का भी रिश्ता उनके लिए आया था. पर माँ ने नाना के फैसले का मान रखा और 14 जून 1954 में उनकी शादी पापा से कर दी गयी.

माँ उस समय मात्र 18 साल की थी और पापा नौकरी विहीन क्यूंकि उनकी उम्र भी मात्र 20 वर्ष की थी. जिस घर में वो आई वो एक तो ससुराल था और वो भी ऐसा ससुराल जहाँ एक अनाथ बच्चा पला था. माँ को पता था कि कुछ भी नहीं था उनका वहां फिर भी सब उनके थे. अथाह प्यार मिला था पापा को वहां, अपनों से भी बढ़कर. बहुत अहसान थे उनके पापा पर. ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी थी पर माँ ने उसे बखूबी निभाया.

माँ जो राजकुमारी की तरह बहुत नाजों से पली-बढ़ी थी और जिनका नाम भी राजकुमारी था, ने अपने काम, सेवा और व्यवहार से सबका दिल जीत लिया. सबकी चहेती बड़ी बहु बन गयी क्यूंकि मामा दादा के बेटे पापा से उम्र में छोटे थे.

पापा चूंकि नौकरी में नहीं थे इसीलिए ये तय किया गया कि जबतक पापा की नौकरी नहीं लगती तबतक बच्चे नहीं आयेंगे उनकी ज़िन्दगी में. बड़ों को ये पता नहीं था क्यूंकि तब आज की तरह खुलेआम ये सब बातें नहीं होती थी. इसीलिए माँ को बच्चे होने के लिए तरह तरह के व्रत रखने को कहा गया.

कौन-कौन से व्रत नहीं किये माँ ने. छठ, तीज, नवरात्रि, वट सावित्री, एकादशी, मंगल, गुरु, शुक्र शनि और भी अनेक. किस-किस भगवान को नहीं पूजा. बच्चों के लिए नहीं, ऐसे भी. बहुत आस्था थी उनकी ईश्वर में. काम के साथ-साथ ईश्वर की सेवा के लिए भी वक़्त निकाल लेतीं.

पर हमें माँ ने कभी किसी भी पूजा और व्रत के लिए बाध्य नहीं किया. नहाने-धोने और पूजा में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया. उनका कहना था कि हम भगवान को अपना पिता मानते हैं और भगवती को माँ. तो क्या माँ बाप के पास जाने के लिए नहाने की आवयश्कता होती है? वो तो अपने बच्चे को किसी भी रूप में स्वीकारते हैं. बस दिल में सच्ची श्रद्धा और भक्ति होनी चहिये. मन निश्छल होना चाहिए, छल-कपट से दूर. उपवास भी मन का भ्रम है. उपवास करना है तो हमे ‘बुराई’ से करनी चाहिए.

पंडित स्त्रियों को हनुमान जी के पास नहीं जाने देते पर आपको आश्चर्य होगा कि पटना के स्टेशन के प्रसिद्ध महावीर स्थान के दोनों जोड़े हनुमान जी ने कई सालों तक माँ के हाथों से बनाये हुए चोंगे ही पहने. राम सीता लक्ष्मण के भी कपड़े हमेशा वही बनाती.

हमारा जन्म पापा की नौकरी लगने के बाद हुआ. माँ की पूजा और पाठ यथावत चलते रहे. मेरे बड़े भाई और मेरा, दोनों का जन्म मंगल को हुआ था और क्रमशः कार्तिक और चैती छठ के समय. इसीलिए मंगल और छठ का हमारे यहाँ खासा महत्व रहा.  माँ ने 1954 से लेकर 2010 तक, 56 साल लगातार छठ किया. मेरे घर में कोई मेहमान, मेहमान नहीं होता था. लोगों की अच्छी आवभगत करना और उन्हें अच्छा बना कर खिलाना माँ को बहुत पसंद था. कोई भी घर आता तो उसका खुले दिल से स्वागत होता. खाना खाए बिना कोई नहीं जाता. अपनापन और प्यार भरा था उनकी झोली में. सब में बांटती. सबकी अपनी थीं वो. हमारे घर में काम करने वाले भी हमारे मामा, चाचा, बुआ या मौसी होते. सबका आदर करना सिखाया माँ ने. जात-धर्म की बातें नहीं होती थी हमारे घर में. सब एक हैं ये ही जाना हमने. हमारे घर में जिस तरह होली दीवाली मनती वैसे ही जब मौका मिले तब रोजा अफ्तारी भी करायी जाती. जो था उसमें ही खुश रहती माँ. हमेशा संतुष्ट. कभी किसी चीज़ की मांग करते नहीं देखा उन्हें हमने.

क्यूंकि पापा ने अपने जीवन में माँ बाप की कमी महसूस की थी और कई बार अपनी इच्छाओं को भी दबाया था इसलिए उन्होंने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि हमें कोई कमी महसूस न हो. माँ ने पापा के साथ मिलकर तिनका तिनका जोड़कर आशियाना बनाया. इस में उन दोनों ने हमारी जरूरतों का पूरा ख्याल रखा और इसमें माँ ने पापा का पूरा साथ दिया. अपनी पसंद, अपनी जरूरत – सभी को एक किनारे रख दिया. बहुत बचत करनी होती. अनावश्यक खर्च कि सामर्थ्य हममें नहीं थी पर हमारी पढ़ाई-लिखाई में कोई कमी नहीं की गयी. बेटे और मैं बेटी, हम सब सामान थे अपने घर में-दोनों को बराबर अधिकार और बराबर आज़ादी. जब हम बड़े हुए, अपने पैरों पर खड़े हुए, और कुछ देना भी चाहा तो माँ ने वापस अपनी तरफ से अपना आशीर्वाद कहकर हमें वो वापस कर दिया.

शादी के बाद भी मामा दादा ने उनकी पढ़ाई जारी रखी और उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित भी किया. पापा ने भी साथ दिया. माँ उस ज़माने की एमए थी, दर्शनशास्त्र में. बाद में एलएलबी भी किया. पर नौकरी की इच्छा उन्हें कभी नहीं रही. उन्होनें खुद को घर परिवार और अपने भगवान की सेवा तक ही सीमित रखा. तरह तरह के व्यंजन बना कर खिलाना उनकी खासियत थी. इसके लिए वो हमेशा, हर घड़ी, तत्पर रहती. कभी थकती नहीं. बहुत ही स्वादिष्ट भोजन बनाती थी वो. राज पूछा जाता तो बोलती, खाना नियम और मसाले से नहीं बनता है. दिल डालना पड़ता है. भावनाएं डालनी होती हैं.

हाथ कांपते थे इस उम्र में, पर रसोई में जाना उन्हें फिर भी अच्छा लगता. कांपते हाथ भी लोगों की पसंद के व्यंजन बनाने से उन्हें डिगा नहीं पाते.

बीमार पड़कर बिस्तर पकड़ते हमने उन्हें नहीं देखा. पता नहीं कहाँ से लाती थी वो इतनी उर्जा. बुढ़ापे वाले रोग जैसे डायबिटीज, आर्थिराइटिस, आलस या थकान उन्हें छू भी नहीं गए थे. इस उम्र में भी वो पैरों पर बैठ जाती और हसुये से सब्जी काट लेती. वेस्टर्न स्टाइल के टॉयलेट की उनको कभी जरूरत नहीं पड़ी.

उन्हें आइसक्रीम बहुत पसंद थी. जिस रात की सुबह उन्हें अटैक आया उस रात भी उन्होंने आइसक्रीम खायी थी.

उनकी चोटी बहुत लम्बी थी और वो बाल कटवाने के पक्ष में नहीं थी. पता नहीं कुछ डर सा था उनके मन में. कहती थी सुहागनों के बाल नहीं काटे जाते. अशुभ होता है. इस उम्र में भी हम उनकी सहूलियत का हवाला देते पर बाल कटवाने के वो सख्त खिलाफ थीं.

मेरे मंझले भाई का जन्म घर पर ही हुआ था. बाकी हम तीन भाई बहनों के जन्म को छोड़कर और कभी भी हॉस्पिटल नहीं गयीं माँ. सारी डिलीवरी नार्मल थी. बहुत घबराती थी हॉस्पिटल के नाम से. बहुत ही एक्सीडेंट प्रोन थी. फिसलने का तो जैसे ठेका ले रखा था. कई बार हाथ-पैर तोड़े उन्होंने अपने. पर देसी इलाज़ और वैद्य हकीम से ही खुद को ठीक करती. उनकी हाथ की हड्डियाँ टेढ़ी-मेढ़ी जुड़ी - ये मंजूर था उन्हें, दर्द सहना मंजूर था पर हॉस्पिटल जाना नहीं.

आज वो माँ हॉस्पिटल में थी.

मैं 31 मई को जैसे ही पटना पहुँची थी, नहा धोकर तुरंत माँ को देखने हॉस्पिटल पहुँची. बिलकुल असहाय पड़ी थी वो. हिलने-डुलने में असमर्थ. अपनी आँखों से एकटक हमें देखती हुई. वही प्रेम छलकता हुआ उनकी आँखों से. नर्स ने उनके बाल काट दिए थे. उनकी नाक में ऑक्सीजन लगा था और गले में पाइप. दोनों हथेलियों को पट्टियों से बाँध दिया गया था ताकि पाइप न खींच सके वो. हाथों को भी हॉस्पिटल बेड से बाँध दिया गया था. फिर भी हाथ उठा कर शायद आशीर्वाद देना चाहती या फिर अपनी पट्टी हटवाना - हम समझ नहीं पाये थे.

उनके सर पर हाथ फिराया. बच्ची लग रही थी वो. बहुत ही मासूम.

मुझे मेरे बड़े भाई ने बताया कि डॉक्टर ने उनका एमआरआई कराने को बोला है पर पापा नहीं मान रहे थे. डॉक्टर को ब्लड क्लॉट की सही जानकारी चाहिए थी जो नार्मल सीटी स्कैन से नहीं मिल रही थी. इतना पता था कि कई क्लॉट्स बने हैं और ब्लॉकेज भी, जिसके कारण उनको लकवे का अटैक आया था और बायाँ अंग पैरालाइज हो गया था. जीभ भी. इसीलिए खुद कुछ खा नहीं सकती थी.

माँ कमज़ोर थी और तकलीफ में भी थी इसीलिए पापा उन्हें एमआरआई के लिए भेजना नहीं चाहते थे. मैंने पापा को समझाने की कोशिश की. अंततः वो मान गए. एमआरआई के लिए दूसरे सेण्टर ले जाना था जो वहां से करीब 7-8 किलोमीटर दूर था. रात करीब 11:30 बजे का समय नियत किया गया उनको ले जाने का क्यूंकि तब ट्रैफिक नहीं होता. पापा एम्बुलेंस में बैठने को तैयार नहीं हुए माँ के साथ. वो बहुत कमजोर पड़ गए थे. मेरा बड़ा भाई घर पर बच्चों के साथ था. भाभी भी थी पर वो भी बहुत घबरायी हुयी थी. मुझे भगवान ने शक्ति दी और मैं माँ के साथ एम्बुलेंस में बैठी. पापा और भाभी पीछे से गाड़ी से आ रहे थे.

ऑक्सीजन सिलिंडर भी था एम्बुलेंस में. क्यूंकि एमआरआई रूम में धातु की चीजें नहीं जाती अतः माँ की बिछिया और एक तावीज़ जो वो गले में हमेशा पहनती थी, उतार दी गयी. तावीज़ उतारते समय मेरा दिल जोरों से धड़का था क्यूंकि माँ को उसपर बहुत विश्वास था. पर उस बुरे ख्याल को झटके से दूर किया. सिलिंडर क्यूंकि अन्दर नहीं आ सकता था इसीलिए उसे बाहर रखा गया और एक लम्बी पाइप के सहारे ऑक्सीजन की सप्लाई जारी रखी गयी.

मैं रूम में ही थी माँ के साथ. माँ मशीन के अन्दर गयीं. डॉक्टर साथ के एक कांच के केबिन से उन्हें मॉनिटर कर रहे थे. 3-4 मिनट ही हुए होंगे. एकाएक वो बदहवास से भागते हुए एमआरआई रूम में आये. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती, उन्होंने माँ को खींच कर बाहर निकाला. उनकी सांसें और धड़कन चेक की. दोनों बंद हो चुकी थीं.

मैं जड़वत थी. माँ की तावीज मेरे हाथ में थी.

डॉक्टर्स माँ को रीवाइव करने में लग गए. हार्ट पंप किया जाने लगा. सांसें फिर से लाने के लिए मैकेनिकल आर्टिफ़िशिअल रेस्पीरेशन दिया जाने लगा. जो सुना और फिल्मों में देखा था वो मेरे सामने हो रहा था. मेरी माँ के साथ. उन्हें बचाने के पूरे प्रयास किये जा रहे थे.

मैंने डॉक्टर से कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा. मैं अपने सवालों से उनका ध्यान बंटाना नहीं चाहती थी. अभी माँ का बचना जरूरी था. मैं चुपचाप बुत बने सब देखती रही. प्रार्थना में मेरे हाथ बंधे थे. दिल तेजी से धड़क रहा था.

एकाएक माँ का सिर उछला. उनकी साँस जोरों से अन्दर जाती सुनाई दी. साँसे आने लगी थी. धड़कन शुरू हो गयी थी. डॉक्टर ने एमआरआई रोक दी. माँ को वापस हॉस्पिटल भेजा गया. पापा को ज्यादा नहीं बताया उस समय. पर वो स्थिति भांप चुके थे इसीलिए उन्होनें भी ज्यादा कुछ नहीं पूछा. मैं माँ के साथ फिर से एम्बुलेंस में थी. इस बार उनकी मॉनिटरिंग डिवाइस मेरे हाथों में थी.

हॉस्पिटल पहुँच कर उन्हें तुरंत वेंटीलेटर पर डाला गया. डॉक्टर ने हमें रुकने को कहा. कहा कि कंडीशन क्रिटिकल है और 3-4 घंटे वो माँ को ऑबसर्व करेंगे. तभी कुछ बता पायेंगे. 

माँ जीवन और मौत के दोराहे पर थी. मैं अपने आप को कोस रही थी. एमआरआई के लिए उन्हें ले जाना शायद हमारी सबसे बड़ी भूल थी. क्यूँ किया मैंने ऐसा? सबकुछ हाथ से फिसलता नज़र आ रहा था.

रात भर हम हॉस्पिटल में चहलकदमी करते रहे. दिल किसी गलत आशंका से भयभीत हो रहा था. कब क्या खबर आ जाये. दिल भी अजीब है. मुसीबत की घड़ी में हमेशा गलत सोचता है. हमेशा डराता है.

करीब पौने चार बजे हमें खुशखबरी सुनाई गयी कि माँ खतरे से बाहर है. हम उन्हें देख सकते हैं. हमने दौड़ लगायी. उन्हें सोता देख सुकून हुआ. वेंटीलेटर अभी जरूरी था. हम घर लौट आये.

दो दिन बाद वेंटीलेटर हटा दिया गया था. हम रोज सुबह शाम उनके पास जाते. कभी उनकी तबियत में सुधार नज़र आता तो कभी तबियत फिर से डाउन हो जाती. कभी बुखार होता तो कभी ठीक रहतीं. इस बीच उनकी फिजियोथेरेपी भी शुरू हो गयी थी. पैर और हाथ दोनों सूज गए थे. कुछ बंधे बंधे कुछ ड्रिप्स और इंजेक्शन्स के कारण. फिर भी दवाइयों से अच्छा रेसपाॅन्ड करने लगी थी. हमने डॉक्टर से अनुमति लेकर उन्हें होमियोपैथी भी देना शुरू किया था. उसे खिलाना नहीं सिर्फ सिर पर लगाना होता था. बीच में माँ का हीमोग्लोबिन भी कम हो गया था. पर इसके लिए मैं थी न उनकी बेटी, उसी ब्लड ग्रुप के साथ, अच्छी हीमोग्लोबिन परसेंटेज के साथ. लेकिन उसकी जरूरत नहीं पड़ी. माँ ने लेना सीखा ही नहीं था न.

मन आशावान हो चला था. इस बीच हम हॉस्पिटल टाइप बेड का भी पता करने लगे थे. नर्स के बारे में भी पूछताछ जारी थी ताकि हम थोड़ा ठीक होने पर माँ को घर ले जा सकें और उनकी अच्छे से  देखभाल हो सके. हमें पता था माँ बहुत तकलीफ में थी. हम उनके साथ रहकर उनकी सेवा करना चाहते थे इसीलिए हम उनको घर लाने की तैयारियां कर रहे थे.

माँ पापा की शादी की वर्षगांठ आने वाली थी. 14 जून को. हम रोज माँ को प्रोत्साहित करते. रोज बोलते जल्दी अच्छी हो जाओ हम ऐनिवर्सरी एक साथ मनाएंगे घर पर. सुबह शाम ये बोलते भी और यही उम्मीद भी करते.

मेरा छोटा भाई बीच में आया था. तीन चार दिन रहकर चला गया. मंझला नहीं आया था. माँ की आँखें रोज उसे ढूंढती. उसके प्रतीक्षा में लगतीं. मुझे भी छुट्टी लिए हुए काफी दिन हो गए थे. नौकरी मार्च के बीच में ज्वाइन की थी और मई के अंत से लगातार छुट्टी पर थी. कभी-कभी उसकी चिंता भी सताती. पर फिर लगता माँ को इस हालत में छोड़कर कैसे जाऊं. पीछे में कुछ इमरजेंसी हुई तो जल्दी कैसे आ पाऊँगी. फिर भी सोचा कि 15 का टिकट कराती हूँ. एक हफ्ते रहकर आ जाउंगी. टिकट कराया भी. वेटिंग था. सोच लिया था अपने आप कन्फर्म हुआ तो जाउंगी अन्यथा नहीं.

रोज का हॉस्पिटल का बिल बहुत आता. पापा और बड़े भाई से पूछा कि पैसे की ज़रुरत हो तो हमसे ले लें. पर उन्होनें कहा कि मेडिकल बीमा है. जब लगेगा तो बता देंगे.

मैं रोज फेसबुक पर माँ की दशा का अपडेट करती. बहुतों के हाथ उनके लिए दुआ में उठे थे.

10 जून को डॉक्टर्स ने हमें कहा कि माँ की हालत में काफी सुधार है. दो दिनों से बुखार भी नहीं आया था. फ़िज़ियोथेरेपिस्ट भी उनके पैरों के मूवमेंट से संतुष्ट दिखे.

पर 11 जून को मुख्य डॉक्टर ने हमें बुलाया. बोला कि ले जाना चाहते हैं तो इन्हें ले जाइये. सबकुछ हटा देते हैं. कम से कम घर में पहुंच कर जायेंगी. इनका बचना अब मुश्किल है. अब कोई होप नहीं है.

सन्न रह गया दिल. सुन्न हो गया दिमाग. “ये डॉक्टर पागल हैं क्या? ऐसा कैसे बोल सकते हैं? बाकी सारे डॉक्टर्स बोल रहे हैं माँ ठीक हो रही हैं. उनकी रिपोर्ट अच्छी आ रही है. फिर ये ऐसा कैसे बोल रहे है? डॉक्टर होकर ऐसी नकारात्मक बातें". बहुत गुस्सा आ रहा था. क्या कोई इस तरह से जान बूझ कर किसी को मौत के मुँह में धकेल देगा उसके सारे सपोर्ट सिस्टम हटाकर? ये कुछ भी बोल रहे हैं. उनसे हमने बिलकुल मना कर दिया और कहा कि वो डॉक्टर होकर ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं. उन्होंने कहा डॉक्टर हूँ इसीलिए सोच रहा हूँ. बहुत गालियाँ दी थी हमने डॉक्टर को उस दिन.

पर दिल डरने लगा था. इस आशंका से कांप उठता कि कहीं ऐसा ही तो नहीं होगा. 11 और 12 अच्छे गुजरे. 12 की रात हमने पापा से कहा कि हम शादी की सालगिरह हॉस्पिटल में मिठाई बांटकर मनाएंगे. आप परमिशन ले लीजिये. माँ बीमार ही सही पर ये 62वीं सालगिरह थी उनकी.

12 को ही बीमा वाले को बिल भेजने के लिए उसका हिसाब करते हुए बड़े भाई ने मुझसे कहा था - बस 13 जून तक बीमा का पैसा ख़त्म हो जायेगा. फिर तुमलोगों को मदद करनी होगी.

13 जून भी अच्छे से बीता. हम 14 जून की सुबह माँ से मिलने की तैयारी कर रहे थे. आज माँ पापा दोनों की 62वीं सालगिरह थी. रास्ते से मिठाई लेकर जाना था. हॉस्पिटल में बांटना था. पापा को सुबह सुबह विश किया था. उनका आशीर्वाद लिया था. अब माँ का आशीर्वाद लेना था.

मैं नहा कर निकली ही थी कि फ़ोन की घंटी बजी. हॉस्पिटल से फ़ोन था. वहां से कभी फ़ोन आता नहीं था. जाहिर था कुछ सीरियस था. कांपते हाथों से फ़ोन उठाया. उधर से आवाज़ आई - “जल्दी से आ जाइये. जितनी जल्दी हो सके.”

कहना नहीं होगा कि हम 5 मिनट के अन्दर गाडी में सवार थे. मेरा बड़ा भाई भी साथ था. किसी अज्ञात भय से दिल जोरों से धड़क रहा था. वहां पहुंचे तो डॉक्टर पहले बात करने लगे. बोले माँ की हालत बहुत नाज़ुक है. पिछली रात से पेशाब नहीं हुआ है और शरीर ठंडा पड़ गया है. नब्ज़ बंद हो गयी है. माँ के बचने पर उन्होने नाउम्मीदी जताई. उन्होनें कहा कि वैसी हालत में वेंटीलेटर लगाना भी व्यर्थ है फिर भी अगर हम कहें तो वो वेंटीलेटर लगा सकते हैं अंतिम बचाव प्रयास के रूप में. हमलोगों ने उनसे पहले माँ से मिलने की इज़ाज़त मांगी.

माँ की आँखें खुली थीं. वो हमारा इंतज़ार कर रहीं थीं. हमने उनके पांव छूकर आशीर्वाद लिया. फिर उनके सिर पर हाथ फेरकर उन्हें शादी के सालगिरह की मुबारकबाद दी. और अचानक माँ की आँखें बंद हो गयीं. मशीन की ओर देखा. हार्ट बीट 80 से 70 हुई फिर 70 से 60-50-40-30-20 ... मात्र 10 सेकंड में. मैं जोर से चिल्लाई. डॉक्टर दौड़ कर आये. गर्दन में कोई इंजेक्शन लगाया. तुरंत वेंटीलेटर लगाया गया. मशीन अपने नार्मल रीडिंग पर कुछ क्षणों के लिए लौटी. मैंने माँ का हाथ अपनी हाथों में लिया. बिलकुल ठंडे पड़ गये थे. नब्ज़ टटोलने की कोशिश की. नहीं मिली. डॉक्टर ने कहा अब नहीं मिलेगी. सिर्फ गर्दन पर मिलेगी. मैंने पूछा - “मतलब?” उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा. मुझे गले से लगाया और सर हिलाया. उन्होंने इशारा किया कि माँ अब जाने वाली हैं. मुझसे कहा कि उन्हें मैं सबसे हिम्मत वाली लग रही हूँ. इसीलिए मैं सभी को खबर कर के माँ के पास बुला लूं. जल्द से जल्द.

मैं जड़ थी. बिलकुल मैकेनिकल हो गयी. भावनाएं कहाँ चली गयीं पता नहीं. आँख में आँसू नहीं थे. शायद तथ्य को स्वीकार लिया था. एक बेटे की तरह पली थी उसी तरह पेश आ रही थी. बहुत पहले मैंने अपनी सासू माँ की मृत्यु पर अपने पतिदेव से पूछा था - “आपने माँ का दाह संस्कार कैसे कर लिया? मोह नहीं लगा? रोना नहीं आया? आपकी इतनी प्यारी थी वो कि फ़ोन पर उनकी आवाज़ सुनकर ही रोने लगते थे आप. ” और उन्होंने कहा था - “मैं सबकुछ धर्म समझ कर कर रहा था.” आज मेरे सामने भी ऐसी ही परिस्थितियां थीं. मुझे जवाब मिल गया था.

सबसे पहले भाभी को फ़ोन किया. फिर बाकियों को खबर करने में लग गयी. नर्स ने पापा को कहा कि वो माँ को आखिरी बार जीवित में सिन्दूर लगा दें उनकी शादी के सालगिरह के उपलक्ष्य में. पापा फट पड़े. सिन्दूर लगाया. माँ के सिर पर हाथ फिराया और बोले-“मैंने इसका ठीक से ख्याल नहीं रखा. इसने इतना किया हमारे लिए”. पापा के दिल की पीड़ा का अंदाज़ा मैं लगा सकती थी. कितना कष्ट हो रहा होगा उन्हें तब. तब जब उनकी जीवनसाथी 62 वर्षों तक उनका साथ निभा कर उनसे दूर जा रही हो, उन्हें अलविदा कह रही हो. जब समय को पलटा न जा सके और सिर्फ बीते दिनों को याद किया जा सके जब सुख दुःख दोनों ने मिलकर काटे थे. पर अब क्या. अब तो सब ख़त्म हो चुका था. हाथ थाम कर लाये थे अब तो कंधे पर उठाने की बारी थी.  

भाभी आ गयीं थीं. मैंने अपने ड्राइवर अमीन, जो एक मुस्लिम है पर जिसे माँ बेटे की तरह मानती थीं, से गंगाजल मंगवाया माँ के लिए. इतना पूजा-पाठ करती थीं. इतनी सरल और शुद्ध आत्मा थीं. गंगाजल मुँह में लिए बिना कैसे विदा होतीं इस संसार से. गंगाजल पिलाने को जैसे आगे बढ़ी पापा और भाई जोर से चिल्लाये - “ये क्या कर रही हो? ये कैसे समझ रही हो कि वो जा रहीं हैं?” मैं रुक गयी. फिर पापा ने कहा – ‘नहीं बेटा, ठीक कर रही हो, पिला दो.” मैंने गंगाजल माँ के मुँह में डाला.

कुछ सेकंड्स में ही मशीन की सारी लाइनें सीधी हो गयीं. “Heartbeat not detected” , “pulse not found”, “no breathing” के मेसेज और साँसें थमी हुई.  दिल फिर भी धड़कने का भ्रम दे रहा था. डॉक्टर ने कहा ‘वो जा चुकी हैं. ये मशीन के कारण हैं जिसपर हम उन्हें अभी आधे घंटे और रखेंगे. रीवाइवल की आशा में.” 2 बजकर 40 मिनट हुये थे तब, जब पापा ने माँ को अंतिम साँस लेते हुये देखा था.

फिर डॉक्टर ने हमें अपने पास बुलाया. बोला आगे का क्या सोचा है. बॉडी अभी यहीं रखेंगे या ले जायेंगे?

बॉडी? इस शब्द ने मुझे अन्दर से झझकोर दिया. वो मेरी माँ हैं. एक सेकंड में एक प्यारे रिश्ते से एक बॉडी? मैं फफक-फफक कर रो पड़ी. फिर आंसू नहीं थम रहे थे.

शाम को माँ को घर लाया गया. जिस दिन इस घर में ब्याह कर आई थी, उसी दिन विदा हुईं. अपनी शादी के 62वें वर्षगाँठ पर. इतना लम्बा साथ विरलों को ही नसीब होता है. गंगा दशहरा का पवित्र दिन था. सुहागन गयी थीं भरे पूरे परिवार के बीच से. जिस माँ को मुँह पर कपड़ा रखने से सफोकेशन होता था वो आज आराम से मुँह ढंके सोयी पड़ी थीं.

माँ ने दर्शन शास्त्र सिर्फ पढ़ा नहीं था. जीवन दर्शन अपनाया भी था. माँ सबसे बड़ी थीं पर उनके सभी भाई-बहन उनके सामने गए. ऐसे समय पर उनका धैर्य देखते बनता था और वेदना को छिपाने की उनकी कला अतुलनीय थी. माँ के जाने के साथ नाना का आखिरी कुल दीपक बुझ गया था.

कभी किसी से कुछ नहीं लिया इस बार भी नहीं. 13 को पैसे ख़त्म होने वाले थे. 14 की दोपहर वो चली गयीं. हमसे कोई सेवा नहीं ली. खुद सेवा करती हुयी निकल गयीं.

एक और बात बताऊँ? माँ ने हमपर जीवन भर अपना सबकुछ न्योछावर किया पर उनका नाम कहीं नहीं है घर के सामने जबकि नेम प्लेट में हम सब हैं. और ये सब इसीलिए कि माँ ने ये भी नहीं चाहा.

मुझे भी 15 के पहले मुक्त कर दिया नौकरी पर लौटने के लिए.

हॉस्पिटल से डरती थीं. उन्हें शायद पता था कि एक बार वहां जायेंगीं तो वापस नहीं आयेंगीं. उनका डर सही साबित हुआ था.

बाल नहीं कटवाना चाहती थीं. तावीज हमेशा पहने रखा. बाल गए, तावीज गया और उनके साथ-साथ वो भी.

सिर्फ एक आस लेकर गयी माँ – अपने मंझले बेटे को अपने अंतिम क्षणों में नहीं देख पायीं. ये कसक भाई के दिल में भी कहीं न कहीं होगी कि समय रहते माँ के दर्शन नहीं कर सका वो.

मैंने अपने हेड को फ़ोन किया. कहा, सर सबकुछ होते हुए भी हम माँ को नहीं बचा पाए. उन्होंने कहा- “मैडम, आप अंतिम समय में उनके साथ थी. ये क्या कम है? कितनों को ये सौभाग्य प्राप्त होता है?”

कितना अजीब इत्तेफाक है.

16 तक सबके आने के लिए हम रुके. माँ को एक कास्केट में रखा गया था. अमीन लेकर आये थे रेड क्रॉस से. 16 को हमने माँ को अंतिम विदाई दी. वो बहुत ही खूबसूरत लग रही थीं पूरे साजो श्रृंगार के साथ लाल साड़ी और चुनरी में. नयी दुल्हन की  तरह खोइंचे (आँचल में बंधी वो शुभ चीजें जो दुल्हन को मायके से देकर विदा किया जाता है) के साथ. हमने उनकी पसंद की हर चीज़ का ध्यान रखा था. कई लोग उनका आशीर्वाद लेकर गए. इतना लम्बा सुहाग और साथ और ऐसी किस्मत तो सभी चाहते हैं. हम चारों भाई-बहन ने उन्हें कंधा दिया. मैंने भी. उन्होंने अपने कंधे का इंतजाम शुरू से ही कर लिया था. पर मैं घाट पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी.

पंडित जी ने कहा – “माँ जी बहुत धर्मात्मा थीं. सुहागन गयीं, अपनी शादी के दिन गयीं, गंगा दशहरा के दिन गयीं, भरे पूरे परिवार से गयी, बिना सेवा लिए गयीं और मुख से उनके प्राण निकले. उन्हें तो मोक्ष की प्राप्ति हो गयी.” पंडित जी को क्या मालूम कि मोक्ष कि प्राप्ति तो माँ को जीवन में ही हो गयी थी.

बस माँ अपना आशीर्वाद हमपर बनाये रखें. हमें भी ऐसा ही सौभाग्य प्राप्त हो.

माँ.... जहाँ रहो खुश रहो.


  


पापा माँ के साथ आखिरी क्षणों में 

माँ अपनी दो बहनों और नानी के साथ


माँ को आइसक्रीम बहुत पसंद थी

नानी से शान की आखिरी मुलाकात अप्रैल में - दिल्ली में



माँ की लम्बी चोटी

अगस्त 2013-जब माँ आखिरी बार भोपाल आई थी और विदा हो रही थीं

जब वो हमें छोड़ चलीं

दुल्हन आयीं दुल्हन गयीं - उसी तारीख को 

अमीन जिसे माँ ने अपना बेटा माना

माँ का नाम नहीं

माँ,..प्यारी माँ... अम्मा




6 comments:

  1. Very heart touching. Padhkar ankh se ansu aa gye. Really MAA to MAA hi hoti hai...Speechless!!

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    1. दिल से महसूस किया और लिखा है. लिखते लिखते मैं भी कई बार रोई. माँ के बिना सब अधूरा है, हम खुद भी.

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  2. समझ सकता हूँ दर्द मेरे पापा को भइया कहा करती थी। मैंने भी अपने आँखों के सामने पापाजी को जाते हुए देखा, स्कूटर से नर्सिंग होम गए और 1 घण्टे के अंदर बॉडी बन कर आ गए । दादाजी भी मेरे गौद में आखरी सांस ली वो भी पोस्ट आफिस में जहां से वो रिटायर हुए थे। समझ सकता हूँ आपका दर्द

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    1. सचमुच ये दर्द वही समझ सकता है जिसने अपनी आँखों के सामने किसी अपने को जाते देखा है और कुछ नहीं कर सका.

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  3. पता नही कैसे आप इतने सटीक शब्दो के साथ अपनी बात सरलता से लिख देती है। आपके शब्दो की fan हो गयी मैं, आज आपका ब्लॉग पढ़ते पढ़ते आँखों से अश्रु बहने लगे। क्योंकि वो माँ थी और शायद इसका 10% हम भी सह चुके है।
    आज ये ब्लॉग के एक एक शब्द अंदर तक उतर गए। माँ जहाँ भी रहे खुश रहे।


    Thanks for sharing with us really heart touching

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद पूजा तुम्हारी तारीफ़ और सराहना के लिए. सच कहूँ, दर्द जब लेखन का रूप लेता है तो शब्द अपने आप चयनित होते चले जाते हैं. ये शब्द उन सच्चाइयों का सही दर्पण होते हैं, इनके लिए कोई प्रयास नहीं करने पड़ता.
      सचमुच माँ बनकर ही समझ पाते हैं हम अपनी माँ का दर्द.

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