Wednesday, 24 January 2018

ज़िन्दगी आ रही हूँ मैं...

मैं अपनी जड़ों को पहचानती हूँ. मुझे मालूम है किन लोगो के कारण आज मैं इस मुकाम पर हूँ. मैं उन सबकी नतमस्तक हूँ. बड़ो का मैंने हमेशा सम्मान किया. खुद के कारण किसी का सिर नीचा नहीं होने दिया. बच्चों, बड़ों, गुरुजनों, नियोक्ताओं... सभी के अपेक्षाओं पर खरी उतरने की कोशिश की. जमीन पर हमेशा मेरे पांव रहे, कभी हवा में नहीं उड़ी. कभी किसी के आपसी मामले से मेरा मतलब नहीं रहा, कभी किसी की उपलब्धियों को देखकर मुझे जलन नहीं हुई... अपितु ख़ुशी ही हुई, कभी किसी के पास की बहुमूल्य चीज़ों को देखकर उन्हें पाने की चाहत नहीं हुई, अपनी प्रतियोगी मैं खुद रही और खुद से ही हमेशा मैंने जीतने की कोशिश की. हमेशा सीधी सादी जिंदगी जी. बस या ऑटो में बैठना कभी खला नहीं. कौन मेरे बारे में क्या सोचता है इसकी कभी परवाह नहीं की.. दिमाग को जो तार्किक लगा और दिल को जो सही लगा वही किया, रूढ़िवादिता पर मेरा कभी विश्वास नहीं रहा. मनोबल मेरा हमेशा ऊँचा ही रहा और सोच सदा ही सकारात्मक इसीलिए लोगो की ‘ना’ से कभी हताश नहीं हुई, उसे प्रेरणा मान कर खुद के आगे बढ़ने और सीखने का पथ बनाया. ईश्वर को छोड़ कर कभी किसी चीज़ से डरी नहीं. सच कहने का साहस हमेशा रहा और अन्याय से लड़ने का भी. अत्यंत ही स्वाभिमानी रही और स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने का हक किसी को भी कभी नहीं दिया. बच्चे जबतक स्कूल में रहे, उनकी देखभाल का सारा काम, लोगों के होने के बावजूद, खुद अपने हाथों से किया. हमेशा दूसरों के बच्चों को अच्छा करते देख भाव विभोर हो जाती.. लगता कितने सौभाग्यशाली हैं उनके माँ बाप, लगता अपने ही बच्चे ने ऐसा किया हो... उनकी ख़ुशी मुझे उतनी ही खुश करती और शायद इसीलिए ईश्वर ने मेरे बच्चों को भी इतनी कामयाबी बख्शी.

फिर भी इंसान हूँ, मेरे भी कुछ खुद के सपने थे, कुछ अपेक्षाएं थीं, कुछ हसरतें थी, कुछ इच्छाएं थीं, कुछ पसंद  और कुछ शौक. सपना था आईएएस बनना. पापा ने भी मेरे लिए ये ही सपना देखा था जो पूरा नहीं हो पाया. परिस्थितियां प्रतिकूल थी, कुछ और दायित्वों की प्राथमिकता मेरे सपनों से शायद ज्यादा थी तब और उस बीच उम्र निकल गयी. ये सपना शायद अब अगले जनम में पूरा हो पाये. इस सपने को पूरा ना होते देख दूसरी ओर रुख किया और टीचिंग में आई. अब पढ़ाने को अपना ही लिया था तो इसके साथ पूरा न्याय करना था, ईमानदारी से अपना कर्त्तव्य निभाना था. बी. एड. की टॉपर रही, उसमें एक नया रिकॉर्ड कायम किया और सत्य निष्ठा से अध्यापन कार्य को निभाते हुए इसकी पराकाष्ठा पर पहुँची राष्ट्रपति के हाथों इस क्षेत्र में नेशनल अवार्ड लेकर. पहला सपना पूरा नहीं हो पाया तो क्या, इसी बीच दूसरा सपना भी देख लिया- अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाने का, जो 1989 में बॉटनी में पी. एचडी. से शुरू होकर 26 सालों के बाद अंततः 2015 में कंप्यूटर में पी. एचडी. से पूरा हो पाया. पथ बहुत ही कठिन था और उसकी अपनी एक और लंबी कहानी है. अपेक्षाओं की बात नहीं करुँगी क्यूंकि शायद अपेक्षा रखना उचित नहीं है क्यूंकि जरूरी नहीं कि हमारी हर अपेक्षा पूरी हो. हसरत थी खुद का एक मुकाम हासिल करना, आत्म निर्भर होना और अपना एक अस्तित्व कायम करना... वो काफी हद तक पूरा कर पाने में कामयाब हुई. अपने आस पास के लोगों से मिलना जुलना, उनके साथ उठाना बैठना अच्छा लगता पर ये इच्छा ज़िन्दगी की भाग दौड़ में पूरी नहीं हो पाई या यूँ कहें कि हम दोनों की पसंदगी नापसंदगी के बीच दब कर रह गयी. सांस्कृतिक कार्यक्रम और प्रस्तुतियां देखना मुझे बहुत पसंद है पर अभी तक जी खोल कर इनका आनंद नहीं ले पाई... देश-विदेश घूमने का शौक भी पूरा करना बाकी है. पिछले 33 सालों में वैसे तो परिवार और रिश्तेदारों के बीच आना जाना काफी हुआ पर घूमने के लिहाज़ से हम दो-तीन जगह ही जा पाए. अगर इसके अलावा गए भी तो वो घूमना बस नेशनल पार्कों तक ही सीमित रहा.

जिम्मेदारियां लगभग पूरी हो गयीं हैं. अब मुझे अपनी इच्छाओं, पसंद और शौक को पूरा करना है. घूमना है, अपने पुराने दोस्तों के साथ समय गुजारना है, उनसे मिलना है जिन्होंने बिना किसी उम्मीद के मेरा साथ दिया, मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत करना है. मुझे देश के कुछ अनदेखे हिस्सों को देखना है और विदेश भी जाना है. उम्र के इन 54 सालों के बीच के रिक्त स्थानों को भरना है. मुझे अपनी ज़िन्दगी को खुद के लिए जीना है. हर महीने के कुछ दिन निकालकर अपने मन का करना है, किसी का इंतज़ार नहीं करना, खुद को खुश करना है.

जफ़र गोरखपुरी की कविता है...
“हम तो वक़्त हैं पल हैं, तेज़ गाम घड़ियाँ हैं
बेकरार लमहे हैं, बेथकान सदियाँ हैं
कोई साथ में अपने, आए या नहीं आए
जो मिलेगा रस्ते में हम उसे पुकारेंगे
पस्त हौसले वाले साथ तेरा क्या देंगे
ज़िन्दगी इधर आजा हम तुझे गुजारेंगे”

तो ज़िन्दगी आ रही हूँ मैं तुझे गुजारने....

मुझे ये लिखते हुये बहुत ख़ुशी हो रही है कि इसी तारतम्य में मैंने लखनऊ से शुरुआत की. वहाँ मैं 19 सालों बाद अपने उस भैया से मिली जिन्होंने मुझे कॉलेज के दिनों में बहुत कुछ सिखाया पढाया. जो मेरी प्रेरणा थे. मैं अपनी बड़ी मामी और ममेरे भाई से भी कई सालों बाद मिली- भैया और भाई के बेटियों से पहली बार मिली. उनसे मिलने की ख़ुशी को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता.

अगले गंतव्य स्थान दिल्ली और नॉएडा थे. दिल्ली में मैं अपनी एक बहुत प्रिय सहेली, जो कि कॉलेज के प्रथम वर्ष के बाद 1977 में ही मुझसे बिछड़ गयी थी, उसकी बेटी से मिली. सहेली से मिलने की आस अभी भी बाकी है. नॉएडा में 35 सालों बाद उस परिवार से मिली जिनके साथ मेरा बचपन गुजरा है, जिनके साथ साथ मैं खेली और बड़ी हुई, जिनके घर और मेरे घर में कोई अंतर नहीं रहा.

मेरा अगला पड़ाव मुंबई था. कई बार वहाँ गयी पर एलीफैंटा की गुफाओं को देखने की चाहत बनी ही रही. इस बार उस तमन्ना को भी पूरा किया.

अभी और भी बहुत सारे मुक़ाम तय करने हैं. कई और लोगों से मिलना है. काम और फुर्सत के क्षणों में तालमेल बिठाना थोड़ा कठिन जरूर होता है पर ये नामुमकिन तो बिल्कुल नहीं है. खुद के लिये अभी और समय निकलना है... अभी और बहुत कुछ करना है जो दिल में है......

“ज़िन्दगी की असली उड़ान अभी बाकी है..
इरादों के कई इम्तिहान अभी बाकी हैं...
अभी तो नापी है मुट्ठी भर ज़मीन...
आगे सारा आसमान अभी बाकी है.”

1 भैया और भाभी के साथ लखनऊ में

2 लखनऊ में

3 बड़ी मामी के साथ

4 भाभी, भाई, भतीजी और मामी के साथ लखनऊ में

5 आकांक्षा-मेरी सहेली की बेटी

6 अपने छोटे भाई, भतीजी और आकांक्षा के साथ 

 7 मामी - बचपन का घर

8 हम दोनों मामी के साथ

9 सलिल वर्मा उर्फ़ पापू (जिसके साथ बचपन बीता) और भाभी के साथ दिल्ली में

10 एलीफैंटा गुफाएं, मुंबई

11 एलीफैंटा गुफाएं

Tuesday, 23 January 2018

वो दस रूपये


अभी कुछ ही दिन हुये, मैं एक स्टेशनरी की दुकान पर कुछ दस्तावेजों की फोटोकॉपी करवा रही थी तभी एक भाई-बहन वहां आये. भाई की उम्र कुछ 7-8 साल रही होगी और बहन उससे 1-2 साल बड़ी. उन्होंने कुछ कापियां लीं और जाने ही वाले थे की भाई की नज़र एक कलरिंग बुक पर पड़ी. वो उसे देखने लगा और उसे वो इतनी पसंद आई कि वो उसे लेना चाहता था. जब उसने दाम पूछा तो उसे 20 रूपये बताया गया. उस बच्चे ने अपनी जेब टटोली तो उसे 10 रूपये ही मिले. वो हसरत भरी निगाह से उस कलरिंग बुक को देख रहा था पर उसे खरीदने के लिए उसके पास पर्याप्त पैसे नहीं थे. बहन उससे उस किताब को छोड़ कर घर चलने की जिद कर रही थी पर भाई को वो किताब इतनी अच्छी लग गयी थी कि वो वहां से उसे लिए बिना जाना ही नहीं चाहता था. मुझसे उसकी हसरत और बेचारगी देखी नहीं गयी. मैंने उसे वो कलरिंग बुक ले जाने को कहा इस कथन के साथ कि पैसे मैं दे दूँगी. पहले तो उसने कुछ आश्चर्य मिश्रित भाव के साथ मुझे देखा क्यूंकि हम एक दूसरे को जानते तक नहीं थे, फिर उसके चेहरे पर एक बहुत ही प्यारी सी मुस्कान आई. उसने अपने 10 रूपये निकाल कर काउंटर पर रखे. हालाँकि मैंने उसे वो 10 रूपये देने को नहीं कहा था फिर भी मैंने इससे मना नहीं किया क्यूंकि इसमें उसकी खुद्दारी झलकती थी. वो प्यार और कृतज्ञता से मुस्कुराया, एक प्यारा सा थैंक-यू कहा और कलरिंग बुक लेकर चला गया. मुझे  एक अनमोल तोहफा मिला था- किसी बच्चे के निश्छल प्यार, संतुष्टि, कृतज्ञता से भरी एक प्यारी सी मुस्कान का. मैं सोचने को विवश हो गयी- क्या 10 रुपये भी किसी की ज़िन्दगी में इतना मायने रखते हैं??? 

Saturday, 20 January 2018

I too was green yesterday

What had I done?

What was my fault?

I stood quietly besides the divider giving shade and respite to the pedestrians in the scorching summer heat.

You polluted the air through your luxurious lifestyle activities and I returned you pure, clean and oxygenated air.

I used to take pride when my branches used to bloom and get laden with little mangoes but your greedy eyes were always on me. You were so jealous that you could never see me happy. You threw stones on me and I gave you back my small mangoes for your pickles. You never let them become ripe but I never  complained.

This place belonged to my friend on the other side of divider and me. We grew up here, we stood tall for years here. Road was carved in this area but our friend in-charge at that time did not find us a threat and carefully demarcated our boundary with radium lights at our feet and our trunk so as to make you aware that we stand there. The traffic on this road is not that heavy that you cannot tolerate us- your quietest friends.

I have seen you grow and anticipated you to be mature enough to understand that we are your best friends but never did I realize that you will be so ignorant and fool to cut me down and lay me to rest. Tomorrow you will kill my friend too, I know.

It is shocking and ironical that this area is being inhabited by the people from forest department and has been aptly named “Aranyavali”- the people who are supposed to save us, stand for us. I was being killed but no one from them even came up to help me, save me.

Now I lie down as a piece of log. I have served you for years. Still, you betrayed me. You will not spare me even now and will use me to the fullest in your worship rituals like havan, for your furniture and for your doors but will never ever feel the pain I have gone through.

When will you realize that that by cutting me down, you have cut one breathing string of yours?






Friday, 19 January 2018

Dehradun Bhai Dehradun


देहरादून से शुरू से ही कुछ छत्तीस का आंकड़ा ही रहा. जब 1984 में हमारी शादी हुई थी तब मेरे पतिदेव देहरादून में वाइल्डलाइफ ट्रेनिंग ले रहे थे. शादी के बाद लोगों ने इनसे कहा कि ये मुझे साथ ले जायें पर इन्होने साफ़ मना कर दिया कि ये ट्रेनिंग के दौरान मुझे नहीं ले जा सकते. नतीजन मुझे 6 महीने ससुराल में अकेले ही रहना पड़ा. जो समय हमारे साथ होने का होना चाहिये था, उसमें हम उस ट्रेनिंग और इस शहर के कारण दूर थे. वाइल्डलाइफ ट्रेनिंग और ये शहर मेरे लिये एक सौत से कम नहीं थे. उसके बाद के कुछ सालों में यादें धुंधली पड़ने लगी थी पर शायद नहीं.... 

बड़ी बेटी स्वाति मात्र साढ़े चार साल की थी. छोटी बिटिया शान होने वाली थी. मेरा छठा महीना चल रहा था. इस बार शुरू से ही परिस्थितियां नाजुक थीं और शुरू के दो महीने मुझे डॉक्टरों ने पूर्णतः बेडरेस्ट पर रखा था. इस बीच पहला ट्रान्सफर सिवनी से रायपुर हुआ था. टेरीटोरिअल डीएफओ के रूप में. पावरफुल पोस्ट, बड़ा सा बंगला, बड़ा कंपाउंड, बंगले से लगा हुआ बड़ा सा हॉस्पिटल और 10 लोग घर में सेवा में जुटे हुए. मैं जब बेडरेस्ट के बाद रायपुर आई तो मेरी इन लोगो ने बहुत सेवा की. खूब पौष्टिक चीज़ें खिलाई पिलाई. बगल में डॉक्टर, घर में सेवा, और खुशनुमा मौसम. मेरी पूरी इच्छा थी कि डिलीवरी वहीँ हो. काम करने वालों में से एक बाई बहुत ही अनुभवी थी और उसे दाई का काम भी आता था. मेरी जो हालत थी, ईश्वर ने उसके हिसाब से पोस्टिंग दी थी. डिलीवरी के लिए 15 मार्च1991 की तिथि दी गयी थी. ज़ाहिर है मैं मार्च 1991 तक तो वहीं रहना चाहती थी. इस बीच देहरादून की पोस्टिंग आ गयी और मेरे पतिदेव जल्द से जल्द वहां जाने के लिए मचल उठे. उस बाई ने और मैंने बहुत गुहार लगायी मार्च तक वो रायपुर रुक जायें पर उन्होंने हमारी एक ना सुनी.  आखिर ये पतिदेव की पसन्द की डेप्युटेशन पोस्टिंग थी और वो जल्द से जल्द देहरादून पहुँच कर वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ज्वाइन करने के लिए उतावले थे. जानवरों के प्रति उनका इतना लगाव और बीवी की स्थिति के प्रति उदासीनता मेरे पल्ले नहीं पड़ी. वर्ष 1990 के 21 दिसम्बर  की कड़कती ठण्ड में हमने देहरादून में कदम रखा. रायपुर के बिलकुल विपरीत अत्यंत ही जमा देने वाला मौसम, कोई भी आदमी आपकी सेवा में नहीं, मेरे देहरादून आने से पहले ही उस जगह के प्रति आक्रोश मेरे मन में पनप चुका था क्यूंकि एक माँ के लिए उसके बच्चे की चिंता और सलामती सबसे पहले थी. पहले हमारा मकान सड़क के किनारे हुआ करता था एक पॉश कॉलोनी वसंत विहार के शुरू में ही. काम में मदद करने वालों के आभाव के कारण ऐसी हालत में भी सारा काम खुद ही करना पड़ता. बाहर का काम इनकी जिम्मेदारी थी. एक छोटी बच्ची गोद में और एक पेट में. अत्यधिक श्रम का हश्र ये हुआ कि शान प्रीमैच्यौर पैदा हुई. शान के जन्म के कुछ महीने बाद ही हम दूसरे घर में शिफ्ट हो गए थे. ये घर भी वसंत विहार में ही था पर बिल्कुल अन्दर था, सुनसान में...चाय बगान के पास, जहाँ जंगली सूअर और भेड़िये आराम से घर तक आ जाते थे. मेन सड़क वहां से 2 किलोमीटर दूर थी और वहां तक पैदल ही जाना पड़ता था. प्रीमैच्यौर बच्चे को सर्दी जुकाम की हमेशा प्रॉब्लम होती है और यही शान के साथ हुआ. उसे दो बार बुरी तरह से निमोनिया हुआ. एक बार तो ऐसे समय जब पतिदेव फॉरेन के दौरे पर थे. स्वाति को पड़ोस में छोड़ कर किस तरह शान को गोद में लिए दो किलोमीटर चलकर मेन सड़क पर पहुँची थी और किस तरह हॉस्पिटल में रात बिताई थी ये सोचकर आज भी दर्द उभर आता है. वहां रहकर इतना झेला कि देहरादून के प्रति कभी कोई लगाव पैदा नहीं हुआ ना ही वहां के ऑफिस के प्रति. हम करीब साढ़े पांच साल वहां रहे. तीन साल के बाद प्रमोशन होने पर भी पोस्टिंग वहीं की एक्सटेंड करा ली गयी थी. इसी गुस्से और तकलीफ में मैंने ये कविता रच डाली. इसमें उस हर चीज़ का ठीक वैसा ही बयान है जैसा मैंने अनुभव किया. मेरा साहित्य से ज्यादा वास्ता नहीं है पर ये कविता सबको वहाँ बहुत पसंद आई. आशा है आप सबों को भी पसंद आएगी. यह मात्र मेरा अनुभव एवं पारिस्थिति रचित परिपेक्ष्य है-किसी और की सोच और अवधारणा से इसका कोई सबंध नहीं है... इसीलिए इसे अन्यथा ना लें. कविता का शीर्षक है-देहरादून भाई देहरादून


देहरादून भाई देहरादून
डीएफओ बन गया है प्यून
सूख गया बीवी का खून
देहरादून भाई देहरादून

उतर गया है सर का ताज
चमकने वाला है अब मून
बीवी के ताने सुन सुन
सारे गुण लगते अवगुण
देहरादून भाई देहरादून

राजस्थान की गर्मी फेमस
काश्मीर की ठण्ड
क्या है फेमस इस प्रदेश का
करना चाहो गर मालूम
तो रहो सितम्बर, रहो दिसम्बर
रहो मार्च तुम रह लो जून
छतरी साथ रहेगी हरदम
और रहे हरदम मानसून
देहरादून भाई देहरादून

चाहे महरी या हो आया
सब मनमौजी, सब रंगीन
हफ्ते भर वो छुट्टी रखते
काम पे आते तेईस दिन
फर्श नहीं है उनको भाता
ना ही भाता है कालीन
बैठेंगे या तो बिस्तर पर
या कुर्सी ही लेगे छीन
कभी सख्त तो कभी नरम
कभी ठंडी तो कभी गरम
लगती उनको है जमीन
तो पहन चले आयेंगे जूते
पूजाघर हो या बेडरूम
देहरादून भाई देहरादून

सब बातों में है इंटरेस्टिंग
वाइल्डलाइफ डेप्युटेशन पोस्टिंग
कहते हैं कि है यहाँ
हस्बैंड के करियर के स्कोप
बच्चों के पढ़ने के स्कोप
बीवी के सड़ने के स्कोप
दौरे की जब बात चले तो
इंडिया की ही कौन कहे
फॉरेन भी मचा आयेंगे धूम
पीछे रहती बीवी उनकी
और रहे बच्चे मासूम
ना कोई आगे ना कोई पीछे
जब भी जरूरत उनको खीचें
तो ढोये बच्चे ढोये थैला
खरीद रही राशन साबुन
देहरादून भाई देहरादून

जाना हो परिचित के मकान
लाना हो राशन का सामान
या ढूँढना कोई भी मुकाम
साधन है विक्रम या फिर बस
यूँ तो विक्रम में है आराम
लगता नहीं बहुत है दाम
पर वो जायेगा नाक की सीध
बस भी समय और भीड़ की मारी
आपको दिखा जाएगी पीठ
ऐसी बेचारगी में तो हम
थक जाते पैदल घूम घूम
देहरादून भाई देहरादून

महँगे कपडे महँगा मकान
महँगा है राशन का सामान
पानी कभी ना आये नल में
कभी बिजली करे परेशान
बिल तो आते बड़े बड़े पर
वक़्त पड़े कभी काम ना आता
डब्बे सा ये टेलीफोन
है जगह सही फॉर सैर सपाटा
और है गुड फॉर हनीमून
गर जो सोच रहे रहने की
तो रहो अमरीका रह लो यूरोप
रहो चीन रह लो रंगून
पर मानो जो मेरी सलाह तो
कभी ना रहना देहरादून
देहरादून भाई देहरादून

© आरती कुमार
1993 में रचित