Wednesday, 28 March 2018

अनुस्वार





आज व्हाट्स एप्प पर एक मैसेज आया
“बचपन में हिंदी में “ञ” पढ़ा था ...
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आज तक समझ नहीं आ रहा कि इसका इस्तेमाल कहाँ करूँ?

इसी मैसेज ने मुझे ये ब्लॉग लिखने के लिये प्रेरित किया. आज मैं अपने इस ब्लॉग के जरिये इस दुविधा को दूर करने की कोशिश करती हूँ.

खास कर ‘ङ’ और ‘ञ’ का उपयोग और महत्व समझाने के लिये और हर वर्ग के अंतिम वर्ण का उपयोग भी बताने में अनुस्वार बहुत ही महत्वपूर्ण है.  

अगर किसी अक्षर के ऊपर अनुस्वार लगा हो तो वो अनुस्वार उस अक्षर के बाद वाले अक्षर के वर्ग के आखिरी वर्ण का आधा इंगित करता है. जैसे अंडा में ‘अ’ के ऊपर अनुस्वार है और उसके बाद का अक्षर ‘ड’ है तो ये अनुस्वार ‘ड’ वाले वर्ग का आखिरी वर्ण, यानि ‘ट ठ ड ढ ण’ में से आखिरी वर्ण ‘ण’ के आधे को इंगित करता है. कुछ और उदहारण इस प्रकार हैं:

अंगद, पंकज, शंकर, गंगा - अनुस्वार वाले अक्षर के बाद का वर्ण [क ख ग घ ] से एक है. इसीलिए अनुस्वार इस वर्ग के आखिरी वर्ण ‘ङ’ का आधा इंगित करेगा, यानि अङ्गद, पङ्कज, शङ्कर, गंङ्गा.

अंचल, संजय, संचय, व्यंजन, चंचल, खंजर, पिंजरा - अनुस्वार वाले अक्षर के बाद का वर्ण [च छ ज झ ] में से एक है. इसीलिए अनुस्वार इस वर्ग के आखिरी वर्ण ‘ञ’ का आधा इंगित करेगा, यानि अञ्चल, सञ्जय, सञ्चय, व्यंजन, चञ्चल, खञ्जर, पिञ्जरा.

कंटक, दंड, कंठ - अनुस्वार वाले अक्षर के बाद का वर्ण [ट ठ ड ढ] में से एक है. इसीलिए अनुस्वार इस वर्ग के आखिरी वर्ण ‘ण’ का आधा इंगित करेगा, यानि कण्टक, दण्ड, कण्ठ.

अंत, मंथन, चंदन, बंदर - अनुस्वार वाले अक्षर के बाद का वर्ण [त थ द ध] में से एक है. इसीलिए अनुस्वार इस वर्ग के आखिरी वर्ण ‘न’ का आधा इंगित करेगा, यानि अन्त, मन्थन, चन्दन, बन्दर.

कंपन, संभव, चंबल - अनुस्वार वाले अक्षर के बाद का वर्ण [प फ ब भ] में से एक है. इसीलिए अनुस्वार इस वर्ग के आखिरी वर्ण ‘म’ का आधा इंगित करेगा यानि कम्पन, सम्भव, चम्बल.

शायद अब समझ आया होगा ‘ङ’ और ‘ञ’ जैसे वर्णों का प्रयोग अनुस्वार के रूप में. वैसे भी हर व्यंजन में स्वर तो है ही.

दोष आज कल के बच्चों का नहीं है अपितु दो अन्य कारण हैं इसके पीछे. एक तो हमने हिंदी भाषा का प्रयोग करना नहीं के बराबर कर दिया है और शायद तभी तक करते हैं जब तक हमारी स्कूली शिक्षा का वो विषय रहता है. अंग्रेजी बोलने में हम अपनी शान समझते हैं और हिंदी बोलने में अपनी हेठी. हिंदी बोलेंगे भी तो किसी वाक्य को पूरा करने के लिये हमें अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेना पड़ता है क्यूंकि अंग्रेजी के शब्द आजकल हमारी आम बोलचाल की भाषा का एक अभिन्न अंग बन गये हैं. टैक्सी ड्राइवर को बोलो “दायें मोड़ो” और वो नहीं समझेगा पर जैसे ही राइट कहो वो तुरंत दाहिनी ओर मुड़ जायेगा.

दूसरा बहुत बड़ा कारण है पढ़ाने का तरीका. आज हमारे बच्चे ‘क वर्ग’, ‘च वर्ग’ पढ़ते हैं. पहले हमें इन वर्गों को मुख में जीभ के स्पर्श के उच्चारण के माध्यम से समझाया जाता था. ‘कि’ और ‘की’ या ‘उ’ या ‘ऊ’ के प्रयोग में कभी ग़लती ना हो इसे भी उच्चारण के माध्यम से ही समझाया जाता था. हम जब पढ़ते थे तो हमारे लिये उच्चारण में स्पर्श हुये मुखभाग के आधार पर ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ विभक्त किये गये थे और उन्हें क्रमशः तालव्य ‘श’(बोलते समय जीभ द्वारा कठोर तालू का स्पर्श), मूर्धन्य ‘ष’(बोलते समय जीभ द्वारा मूर्धनि का स्पर्श), वर्त्स्य या दंत ‘स’(बोलते समय जीभ द्वारा दांत के ऊपर के ‘वर्त्स्य (alveolar)’ हिस्से का स्पर्श) कहकर पढ़ाया जाता पर अब वो ‘श’ शलगम का, ‘ष’ षट्कोण का और ‘स’ साइकिल का, कहकर पढ़ाया जाता है.

क्या कहूँ? हिंदी हममें से कई लोगों की मातृभाषा भी है और हमारी राष्ट्रभाषा भी, पर हमारी पसंदीदा भाषा बिल्कुल नहीं. शायद इसीलिए हमने इसपर कभी कोई ध्यान नहीं दिया. इस भाषा के प्रति हमारा व्यवहार सौतेला और तिरस्कारपूर्ण ही रहा.

बस एक अनुरोध जरूर करुँगी, एक बार आप हिंदी के सारे व्यंजनों का उच्चारण कर के जरूर देखिये. बहुत ही दिलचस्प लगेगा. देखिये किस तरह वर्गों के विभाजन में जिह्वा के स्पर्श का हाथ रहा है. देखिये किस तरह एक वर्ग के पाँचों वर्णों का उच्चारण जीभ के मुख के एक ही हिस्से के स्पर्श से होता है (2 वर्णों के अपवाद को छोड़कर) और किस तरह 'प' वर्ग के सारे अक्षर दोनों होठों को मिलाकर ही बोले जा सकते हैं.

अपने प्रयोग के बाद कौन सा वर्ग मुख के किस हिस्से से जीभ के स्पर्श से बोला जा सकता है, मुझसे भी जरूर साझा कीजियेगा.

Friday, 16 March 2018

किस्सा प्रोफाइल फोटो का..


बड़ा अजीब लगता है, लोग सोशल मीडिया पर तो आ जाते हैं पर उनकी प्रोफाइल फोटो के नाम पर कभी ईश्वर की, कभी किसी सेलेब्रिटी की या कभी कोई कार्टून डला होता है. आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भी भेज देंगे, आपको एक महान जादूगर या कुछ विशेष शक्तियों से पूर्ण समझ कर, कि आप पता लगा ही लेंगे कि वो कौन हैं. आपको उनसे फ्रेंडशिप करनी है या भगवान और गुड्डो गुड़ियों से? व्हाट्स एप्प पर एकाएक किसी अज्ञात नंबर से मैसेज आ जायेगा. वो उसकी तरफ से आपको पहला मैसेज होगा पर ना उसमें नाम लिखा होगा, ना डीपी सही होगी और ना ही व्हाट्स एप्प नंबर सही नाम से सेव किया हुआ होगा. व्हाट्स एप्प पर नाम की जगह दो फूल बने आयेंगे, या भगवान या फिर किसी बाबा का नाम लिखा होगा जैसे कि व्हाट्स वो नहीं, ये फूल, भगवान और बाबा इस्तेमाल कर रहे हों. कोफ़्त होती है ऐसे लोगों से. समझ में नहीं आता क्या किया जाये इनका.

इनमें से अधिकांश ऐसे लोग होते हैं जो दूसरों में नुक्स निकालना चाहते हैं. वो फर्जी प्रोफाइल इसीलिए बनाते हैं कि कोई उन्हें पहचान ना पाए और वो जितनी चाहे उतनी गालियाँ दूसरों को बेझिझक दे सकें. उनका मकसद ही ग़लत होता है और वो बुरी तरह से हीन भावना से ग्रसित होते हैं. दूसरों की खामियाँ पोस्ट करके अपने अहम् की तुष्टि करते हैं. उनका तो खुद का कोई व्यक्तित्व ही नहीं होता. मुखौटा ओढ़ कर जी रहे ऐसे लोगों में अपने नकारात्मक कमेंट से दूसरों को नीचे गिराने की जगह और लोकप्रिय बनाने में बहुत बड़ा योगदान होता है.

कुछ और ऐसे लोग होते हैं जो अपना जीवन अपने लिये कम जीते हैं और किसी विशेष फ़िल्मी या टीवी सेलेब्रिटी के लिये ज्यादा. उनके पोस्ट, उनके फोटोज, उनके वाल में सिर्फ वो सेलेब्रिटी ही होता(ती) है, उनकी खुद की फोटो तो मिलती ही नहीं. वो शायद ये भूल जाते हैं कि उनके लिये तो वो सेलेब्रिटी “एक” है पर सेलेब्रिटी के लिये वो “भीड़ में से एक” हैं. जिनको वो अपनी ज़िन्दगी मानते हैं उससे शायद कभी मिलना चाहें तो उन्हें मिलने भी ना दिया जाये. खुद की खूबसूरती, वैयक्तिकता और विशेषता भूल जाते हैं ऐसे लोग.

एक और कैटेगरी भी है कुछ ऐसे लोगों की, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों की, जिन्हें सोशल मीडिया पर तो आना है पर अपना सही रूप लोगों से छुपाना है. उन्हें या तो परिवार से इज़ाज़त नहीं होती फोटो डालने की या फिर वो इस बात से डरे होते हैं कि उनकी फोटो का गलत इस्तेमाल ना हो. समझ में नहीं आता कि अगर वो इतना ही डरते हैं तो सोशल मीडिया पर आखिर आते ही क्यूँ हैं. ये भी समझ में नहीं आता कि परिवार उनपर इतना हावी कैसे हो सकता है कि उन्हें एक छोटी सी चीज़ करने की इजाज़त भी उनसे लेनी पड़े.

खैर, मेरा तो एक सवाल है प्रोफाइल फोटो के संदर्भ में... क्या खुद की फोटो हो उसमें या फिर ईश्वर की, किसी सेलेब्रिटी की या कोई कार्टून?

जवाब आप पर छोडती हूँ... मैं सिर्फ दो प्रसंग बयां करती हूँ जो मेरे साथ हुईं घटनायें हैं.

प्रसंग 1

हमलोग 1977 में साहेबगंज, जो पहले बिहार में था, आज झारखण्ड में है, गये. पापा का तबादला हुआ था. तब मैंने 10th पास किया था और वहीँ के कॉलेज में इंटरमीडिएट में दाखिला लिया था. मेरी एक बहुत अच्छी सहेली बनी वहाँ.. किरण. मेरी बेस्ट फ्रेंड्स में से एक. हम सबकुछ शेयर करते. इच्छा थी कि पूरी कॉलेज की पढाई एक साथ ही करें. पर हमारा साथ सिर्फ 10 महीने का रहा क्यूंकि पापा का फिर से पटना ट्रांसफर हो गया था. उसके बाद किरण से मुलाकात तो नहीं हुई पर चिट्ठी के माध्यम से हम जुड़े रहे. तब मोबाइल नहीं था ना ही हर घर में लैंडलाइन होता था पर हम बहुत ही खुशहाल थे और रिश्ते ज्यादा प्रगाढ़ थे. चाची(किरण की माँ) एक बार आई थी माँ के साथ छठ करने. किरण के पापा बहुत बीमार थे तब. उसके बाद किस्मत ने पलटा मारा. दुर्भाग्यवश चाची की आसमयिक मृत्यु हो गयी और किरण की एकाएक शादी भी. उसकी शादी के बाद पता नहीं क्यूँ, पर हमारा संपर्क टूट गया. फिर हम नहीं मिले. याद दिल के कोने में बसी थी पर वो कहाँ है, पता ही नहीं चल पाया.  

जिंदगी अपनी रफ़्तार में फिर भी चलती रही. एकाएक बहुत सालों बाद 2011 में मुझे फेसबुक मैसेंजर पर एक मैसेज मिला. किसी आकांक्षा का. मैं उसे नहीं जानती थी पर उसने मुझे पूछा था “किरण चौहान को जानती हैं आप? आप आरती मौसी हैं ना जो साहेबगंज में भी रह चुकी हैं?”

मेरी समझ में बहुत कुछ आया पर कुछ-कुछ नहीं भी. इतना समझ गयी थी कि ये किरण की बेटी ही है जो मुझे मौसी संबोधित कर रही है. मन उल्लासित हो चला था पर उसने मुझे ढूँढा कैसे, वो भी इतने सालों बाद, वो भी तब जब उसने मुझे कभी देखा भी नहीं था? जवाब था कि मेरी तलाश हमेशा जारी थी. अंततः फेसबुक प्रोफाइल फोटो ने मदद की जिसे उसने किरण को दिखाया था और उसने मुझे पहचाना था. फिर उससे लगातार संपर्क बना रहा. पिछले साल मुलाकात भी हुई. किरण से अभी तक भेंट नहीं हो पाई है पर जल्द ही मिलूंगी इसकी पूरी आशा है. अलबत्ता किरण का मोबाइल नंबर अब मेरे पास है. वो फेसबुक पर नहीं है पर व्हाट्स एप्प पर है. तो बातें भी होने लगी है और फोटो शेयरिंग भी. सिर्फ फेस टू फेस मुलाक़ात नहीं हो पाई है. 1978 से 2011.... पूरे 33 सालों के बाद दो बिछड़े दोस्त आपस में फिर जुड़ गये. किसे श्रेय दूं? बेटी ने तो मिलाया, फेसबुक का भी बहुत बड़ा रोल था पर कैसे? मेरी प्रोफाइल फोटो से ही ना? वर्ना सरनेम भी बदल गया था. क्या ये इतनी आसानी से संभव था अगर मेरी प्रोफाइल फोटो में भगवान या सेलेब्रिटी या गुड्डा गुडिया होते?

प्रसंग 2

पिछले साल की बात है. मेरी एक सहकर्मी अपने कुछ फ्रेंड्स के साथ मुंबई गयी थी. जिस दिन उसे वापस लौटना था उस दिन वो स्टेशन पहुँचने के लिये एक बस में सवार हुई. बस की सीट पर उसे एक लेडीज पर्स मिला. उसने उसे उठाया और देखा तो उसमें किसी के सारे जरुरी कार्ड्स जैसे पैन कार्ड, एटीएम, बस पास, ड्राइविंग लाइसेंस, लोकल ट्रेन पास, आई डी सब थे. कुछ रूपये और एक टेलर का बिल भी था. उस दिन इतना समय नहीं था कि उसे किसी पुलिस थाने में जमा कराया जाये क्यूंकि वापसी की ट्रेन पकड़नी थी. पर ज़ाहिर सी बात है वो पर्स जिसका भी था, उसके लिये बहुत ही कठिन समय रहा होगा ये जब उसे पता चला होगा कि उसके सारे जरूरी आई डी कार्ड्स मिसिंग हैं.

ऑफिस आकर उस सहकर्मी ने हमें इस बारे में बताया. हमारी टीम सी आई डी टीम की तरह उस महिला की खोज करने और उसकी मदद के उपाय ढूँढने में लग गयी ताकि उसे जल्दी से जल्दी वो पर्स पहुँचाया जा सके. पहले हमने उसके पर्स से मिले बुटीक के बिल से वहाँ का फ़ोन नंबर लेकर बुटीक में कॉल किया. उससे उस महिला का मोबाइल नंबर हासिल करने की कोशिश की. पर वो वहाँ से नहीं मिल पाया. वहाँ के मालिक ने कहा कि वो हमारी मदद तब ही कर सकेगा जब वो महिला उसके यहाँ से सिले हुये कपडे लेने वापस आएगी. उसने हमारा फ़ोन नंबर भी लिया. हमने बिल फिर से देखा. ड्रेस की डिलीवरी डेट उस बिल में बहुत आगे की लिखी थी.

फिर हमने उसके पैन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस की फोटो के सहारे फेसबुक पर उसे ढूंढना शुरू किया. नाम बड़ा कॉमन था तो अनेक महिलाये उस नाम के सर्च में सामने आयीं. सारी की सारी मुंबई की. ड्राइविंग लाइसेंस के फोटो से तो कोई उम्मीद नहीं थी क्यूंकि हम सब जानते हैं ऐसी तस्वीरें कितनी खूबसूरत और क्लियर होती हैं. ऐसी खूबसूरत तस्वीर उस नाम की किसी महिला की तस्वीर से, जो मुंबई में रहती हो, नहीं मिलती थी. पैन कार्ड में भी उसने पता नहीं कब की फोटो डाली थी. दो तीन प्रोफाइल फोटोज से थोड़ी बहुत मिलती जुलती दिखाई दे रही थी. तय करना मुश्किल था कि इनमें से कौन? किस्मत से उस पर्स को जब और खंगाला गया तो एक पासपोर्ट साइज की तस्वीर और मिली. अब इसके सहारे खोज शुरू हुई और कामयाब भी. क्यूंकि उस फोटो से बिल्कुल मिलती एक महिला फेसबुक पर थी और समझदार थी कि उसने अपनी ही फोटो प्रोफाइल फोटो के रूप में डाली थी.

आगे का काम मुझे दिया गया ताकि मैं उसे जिम्मेदारी से निभा सकूँ. एक तो इतने साल का टीचिंग और सवाल-जवाब करने का अनुभव और दूसरा क्राइम पेट्रोल और सी आई डी सीरियल देखने का. क्रॉस क्वेश्चनिंग में तो मैं माहिर थी. फेसबुक मैसेंजर के माध्यम से उस महिला से संपर्क किया और खूब सवाल किये उस महिला से इस पर्स में रखी चीज़ों, आइडेंटिटी, उसके और उसके पिता के नाम इत्यादि के बारे में और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ये पर्स उसका ही है. उससे उसका पता लिया गया और उसे आश्वासन दिया गया अगली सुबह उसका पर्स कूरियर कर दिया जायेगा. ऐसा वाकई किया भी गया. उसकी अन्तर्दशा इस खुशखबरी के बाद क्या होगी उसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. पर ये संभव हुआ कैसे? प्रोफाइल फोटो से ही ना? इस घटना का एक सकारात्मक पहलू ये रहा कि उस सहकर्मी ने, जिसे वो पर्स मिला था, इन सबके के तुरंत बाद अपनी प्रोफाइल फोटो से भगवान की फोटो हटा कर अपनी फोटो डाल ली जिसके लिये कई दिनों से मैं उसे बोल रही थी. उसे अब इसका महत्व समझ में आ गया था.

आप को क्या लगता है, आप भी बताएं. पर हाँ अगर मुझे फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेज रहे हैं तो प्रोफाइल में अपनी ही फोटो रखें.