Friday, 19 January 2018

Dehradun Bhai Dehradun


देहरादून से शुरू से ही कुछ छत्तीस का आंकड़ा ही रहा. जब 1984 में हमारी शादी हुई थी तब मेरे पतिदेव देहरादून में वाइल्डलाइफ ट्रेनिंग ले रहे थे. शादी के बाद लोगों ने इनसे कहा कि ये मुझे साथ ले जायें पर इन्होने साफ़ मना कर दिया कि ये ट्रेनिंग के दौरान मुझे नहीं ले जा सकते. नतीजन मुझे 6 महीने ससुराल में अकेले ही रहना पड़ा. जो समय हमारे साथ होने का होना चाहिये था, उसमें हम उस ट्रेनिंग और इस शहर के कारण दूर थे. वाइल्डलाइफ ट्रेनिंग और ये शहर मेरे लिये एक सौत से कम नहीं थे. उसके बाद के कुछ सालों में यादें धुंधली पड़ने लगी थी पर शायद नहीं.... 

बड़ी बेटी स्वाति मात्र साढ़े चार साल की थी. छोटी बिटिया शान होने वाली थी. मेरा छठा महीना चल रहा था. इस बार शुरू से ही परिस्थितियां नाजुक थीं और शुरू के दो महीने मुझे डॉक्टरों ने पूर्णतः बेडरेस्ट पर रखा था. इस बीच पहला ट्रान्सफर सिवनी से रायपुर हुआ था. टेरीटोरिअल डीएफओ के रूप में. पावरफुल पोस्ट, बड़ा सा बंगला, बड़ा कंपाउंड, बंगले से लगा हुआ बड़ा सा हॉस्पिटल और 10 लोग घर में सेवा में जुटे हुए. मैं जब बेडरेस्ट के बाद रायपुर आई तो मेरी इन लोगो ने बहुत सेवा की. खूब पौष्टिक चीज़ें खिलाई पिलाई. बगल में डॉक्टर, घर में सेवा, और खुशनुमा मौसम. मेरी पूरी इच्छा थी कि डिलीवरी वहीँ हो. काम करने वालों में से एक बाई बहुत ही अनुभवी थी और उसे दाई का काम भी आता था. मेरी जो हालत थी, ईश्वर ने उसके हिसाब से पोस्टिंग दी थी. डिलीवरी के लिए 15 मार्च1991 की तिथि दी गयी थी. ज़ाहिर है मैं मार्च 1991 तक तो वहीं रहना चाहती थी. इस बीच देहरादून की पोस्टिंग आ गयी और मेरे पतिदेव जल्द से जल्द वहां जाने के लिए मचल उठे. उस बाई ने और मैंने बहुत गुहार लगायी मार्च तक वो रायपुर रुक जायें पर उन्होंने हमारी एक ना सुनी.  आखिर ये पतिदेव की पसन्द की डेप्युटेशन पोस्टिंग थी और वो जल्द से जल्द देहरादून पहुँच कर वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ज्वाइन करने के लिए उतावले थे. जानवरों के प्रति उनका इतना लगाव और बीवी की स्थिति के प्रति उदासीनता मेरे पल्ले नहीं पड़ी. वर्ष 1990 के 21 दिसम्बर  की कड़कती ठण्ड में हमने देहरादून में कदम रखा. रायपुर के बिलकुल विपरीत अत्यंत ही जमा देने वाला मौसम, कोई भी आदमी आपकी सेवा में नहीं, मेरे देहरादून आने से पहले ही उस जगह के प्रति आक्रोश मेरे मन में पनप चुका था क्यूंकि एक माँ के लिए उसके बच्चे की चिंता और सलामती सबसे पहले थी. पहले हमारा मकान सड़क के किनारे हुआ करता था एक पॉश कॉलोनी वसंत विहार के शुरू में ही. काम में मदद करने वालों के आभाव के कारण ऐसी हालत में भी सारा काम खुद ही करना पड़ता. बाहर का काम इनकी जिम्मेदारी थी. एक छोटी बच्ची गोद में और एक पेट में. अत्यधिक श्रम का हश्र ये हुआ कि शान प्रीमैच्यौर पैदा हुई. शान के जन्म के कुछ महीने बाद ही हम दूसरे घर में शिफ्ट हो गए थे. ये घर भी वसंत विहार में ही था पर बिल्कुल अन्दर था, सुनसान में...चाय बगान के पास, जहाँ जंगली सूअर और भेड़िये आराम से घर तक आ जाते थे. मेन सड़क वहां से 2 किलोमीटर दूर थी और वहां तक पैदल ही जाना पड़ता था. प्रीमैच्यौर बच्चे को सर्दी जुकाम की हमेशा प्रॉब्लम होती है और यही शान के साथ हुआ. उसे दो बार बुरी तरह से निमोनिया हुआ. एक बार तो ऐसे समय जब पतिदेव फॉरेन के दौरे पर थे. स्वाति को पड़ोस में छोड़ कर किस तरह शान को गोद में लिए दो किलोमीटर चलकर मेन सड़क पर पहुँची थी और किस तरह हॉस्पिटल में रात बिताई थी ये सोचकर आज भी दर्द उभर आता है. वहां रहकर इतना झेला कि देहरादून के प्रति कभी कोई लगाव पैदा नहीं हुआ ना ही वहां के ऑफिस के प्रति. हम करीब साढ़े पांच साल वहां रहे. तीन साल के बाद प्रमोशन होने पर भी पोस्टिंग वहीं की एक्सटेंड करा ली गयी थी. इसी गुस्से और तकलीफ में मैंने ये कविता रच डाली. इसमें उस हर चीज़ का ठीक वैसा ही बयान है जैसा मैंने अनुभव किया. मेरा साहित्य से ज्यादा वास्ता नहीं है पर ये कविता सबको वहाँ बहुत पसंद आई. आशा है आप सबों को भी पसंद आएगी. यह मात्र मेरा अनुभव एवं पारिस्थिति रचित परिपेक्ष्य है-किसी और की सोच और अवधारणा से इसका कोई सबंध नहीं है... इसीलिए इसे अन्यथा ना लें. कविता का शीर्षक है-देहरादून भाई देहरादून


देहरादून भाई देहरादून
डीएफओ बन गया है प्यून
सूख गया बीवी का खून
देहरादून भाई देहरादून

उतर गया है सर का ताज
चमकने वाला है अब मून
बीवी के ताने सुन सुन
सारे गुण लगते अवगुण
देहरादून भाई देहरादून

राजस्थान की गर्मी फेमस
काश्मीर की ठण्ड
क्या है फेमस इस प्रदेश का
करना चाहो गर मालूम
तो रहो सितम्बर, रहो दिसम्बर
रहो मार्च तुम रह लो जून
छतरी साथ रहेगी हरदम
और रहे हरदम मानसून
देहरादून भाई देहरादून

चाहे महरी या हो आया
सब मनमौजी, सब रंगीन
हफ्ते भर वो छुट्टी रखते
काम पे आते तेईस दिन
फर्श नहीं है उनको भाता
ना ही भाता है कालीन
बैठेंगे या तो बिस्तर पर
या कुर्सी ही लेगे छीन
कभी सख्त तो कभी नरम
कभी ठंडी तो कभी गरम
लगती उनको है जमीन
तो पहन चले आयेंगे जूते
पूजाघर हो या बेडरूम
देहरादून भाई देहरादून

सब बातों में है इंटरेस्टिंग
वाइल्डलाइफ डेप्युटेशन पोस्टिंग
कहते हैं कि है यहाँ
हस्बैंड के करियर के स्कोप
बच्चों के पढ़ने के स्कोप
बीवी के सड़ने के स्कोप
दौरे की जब बात चले तो
इंडिया की ही कौन कहे
फॉरेन भी मचा आयेंगे धूम
पीछे रहती बीवी उनकी
और रहे बच्चे मासूम
ना कोई आगे ना कोई पीछे
जब भी जरूरत उनको खीचें
तो ढोये बच्चे ढोये थैला
खरीद रही राशन साबुन
देहरादून भाई देहरादून

जाना हो परिचित के मकान
लाना हो राशन का सामान
या ढूँढना कोई भी मुकाम
साधन है विक्रम या फिर बस
यूँ तो विक्रम में है आराम
लगता नहीं बहुत है दाम
पर वो जायेगा नाक की सीध
बस भी समय और भीड़ की मारी
आपको दिखा जाएगी पीठ
ऐसी बेचारगी में तो हम
थक जाते पैदल घूम घूम
देहरादून भाई देहरादून

महँगे कपडे महँगा मकान
महँगा है राशन का सामान
पानी कभी ना आये नल में
कभी बिजली करे परेशान
बिल तो आते बड़े बड़े पर
वक़्त पड़े कभी काम ना आता
डब्बे सा ये टेलीफोन
है जगह सही फॉर सैर सपाटा
और है गुड फॉर हनीमून
गर जो सोच रहे रहने की
तो रहो अमरीका रह लो यूरोप
रहो चीन रह लो रंगून
पर मानो जो मेरी सलाह तो
कभी ना रहना देहरादून
देहरादून भाई देहरादून

© आरती कुमार
1993 में रचित




4 comments:

  1. you are inspiration for us.....
    & nicely you have described of Dehradun in your own words it was your hard time which you faced.....:-)

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    1. Thank you for your appreciation Sweta

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    2. This comment has been removed by a blog administrator.

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  2. कविता को व्याकरण की जंजीरों में जकड़ना कविता की हत्या के समान है।जब हम अपने मन के भावों को शब्दों के माध्यम से बिल्कुल वैसे प्रकट करने में सफल होते हैं जैसा हम चाहते हैं तो वही एक मुकम्मल कविता होती है।
    आपने अपनी कविता में अपने मन की बात को बहुत ही सहज भाव से प्रकट किया है।
    इसके लिए आपको हृदयतल से साधुवाद!
    - रंजन, धनबाद.

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