1997 में मैंने कार्मल ज्वाइन
किया, एक कंप्यूटर टीचर के रूप में. यूँ तो मेरी डिग्री कंप्यूटर के लिये काफी थी
और कंप्यूटर पढ़ाने के लिये बी. एड. की जरूरत नहीं थी पर जहाँ सबके क्वालिफिकेशन
में बी. एड. शामिल था तो मुझे अपनी क्वालिफिकेशन में बी. एड. का ना होना कुछ खालीपन
का एहसास देता. आख़िरकार मैंने बी. एड.
करने की ठान ही ली. साथ-साथ ये भी तय किया कि रेगुलर बी. एड. करूँगी, पार्ट टाइम
या डिस्टेंस एजुकेशन से नहीं, क्यूंकि ये डिग्री खुद से नहीं बल्कि बच्चों से जुड़ी थी.
1998 में बी. एड. की प्रवेश
परीक्षा दी. 35900 उमीदवारों में से 34वीं
रैंक आई. मध्य प्रदेश के सभी कॉलेजों के ऑप्शन्स खुले थे.
प्रिंसिपल से बात की. उन्होने कहा कि मैं बी. एड. तो करूँ पर ऐसे कॉलेज को ज्वाइन
करूँ जहाँ दोपहर में क्लास लगती हो ताकि स्कूल और बी. एड. दोनों साथ-साथ चले. वो
नहीं चाहती थीं कि मैं स्कूल छोड़ कर बी. एड. करूँ.
फिर शुरू हुआ कॉलेज का सर्वे. स्कूल की बाउंड्री
से लगा करियर कॉलेज था. पर वहाँ क्लास सुबह लगती थी. एक कॉलेज का पता लगा- श्री
सत्य साईं कॉलेज- जहाँ क्लास दोपहर में लगती थी. श्री सत्य साईं कॉलेज का नाम भी
बहुत ही नियम पालन करने वाले और अच्छी पढ़ाई कराने वाले कॉलेजों में शामिल था.
मैं जानती थी अगर दोपहर वाली क्लास ज्वाइन
करुँगी तो सुबह से शाम तक बिजी रहूंगी और थक भी बहुत जाउंगी. इस कॉलेज से किसी तरह
की रियायत की उम्मीद भी नहीं थी. पर मेरे पास दोपहर की क्लास का कोई और आप्शन भी
नहीं था. सोचा, कोशिश करने में क्या हर्ज़ है. पहुँच गयी जबलपुर काउंसलिंग में.
सीधे श्री सत्य साईं कॉलेज के टेबल पर. दो मैडम बैठी थीं. खतरनाक तरह से सवाल किये
गये. ये बात उन्हें पसंद नहीं आ रही थी कि मैं स्कूल के साथ-साथ रेगुलर बी. एड.
करूँगी. मुझे मेरे निर्णय से डिगाने की भरपूर कोशिश की गयी. मुझसे पूछा गया कि मेरा स्कूल कितने बजे ख़त्म
होता है. ये जानने के बाद कि मैं सवा बजे तक ही फ्री हो पाती हूँ, मुझसे कहा गया कि
कॉलेज 12 बजे
शुरू होता है और अगर मुझे वहाँ एडमिशन लेना है तो मुझे, चाहे कुछ भी हो, रोज 12
बजे वहाँ पहुंचना होगा. मैंने हामी भर दी. अब बी. एड. तो करना ही था. सोच लिया मन
में कि अगर स्कूल छोड़ना पड़ा तो छोड़ दूँगी. पर बी. एड. तो अब करके रहूँगी, इसी
कॉलेज से. चुनौती स्वीकार कर ली मैंने.
भोपाल पहुँच कर सिस्टर प्रिंसिपल से बात की.
उन्होंने मेरी बात को समझा और मेरा साथ दिया. रोज के आखिरी दो पीरियड कंप्यूटर
प्रैक्टिकल के होते थे जिसमें बच्चों को दो टीचर संभालती थीं. सिस्टर ने कहा कि
मैं प्रैक्टिकल के पीरियड के समय ही स्कूल से निकल जाऊं ताकि वहाँ समय पर पहुँच
सकूँ. मेरा दिल सिस्टर के लिये श्रद्धा से भर गया था.
तब स्कूल से कॉलेज पहुँचने के लिये सिर्फ एक ही
साधन था. भट सूअर. भट इसीलिए की वो भट-भट की आवाज़ करता और सूअर इसीलिए कि आगे उसका
इंजन सूअर के थोथुने की तरह दिखता था. अब नहीं दिखाई देती ये सवारी गाड़ी भोपाल की
सड़कों पर.
अब रोज का कार्यक्रम कुछ इस तरह हो गया था. सुबह
4 बजे उठती.
नाश्ता बनाती. टिफ़िन तैयार करती, खुद के लिए दो दो.. एक स्कूल के लिए और एक कॉलेज
के लिए, बच्चों को तैयार करती, खुद तैयार होती. दोनों बच्चों के साथ घर से सुबह 6:20 पर निकलती क्यूंकि स्कूल बस 6:30 तक आ जाती थी.
बच्चे छोटे थे तब, स्वाति बारह साल की और शान मात्र सात साल की. घर से स्कूल,
स्कूल से कॉलेज और वापस शाम 5:30 पर घर. फिर बच्चों को पढ़ाना,
किचेन का काम, सुबह के सब्जी मसाले की तैयारी, खाना-पीना और फिर रात में लेसन
प्लान बनाना. कभी माइक्रो टीचिंग की तैयारी करना तो कभी मैक्रो की. सोते सोते 11-12 बज जाते. पूरे बी.एड. के दौरान मैंने कभी 4-5 घंटे
से ज्यादा नींद का सुख प्राप्त नहीं किया. अजीब धुन सवार थी.
कुछ दिन ऐसे ही बीते. उनलोगों ने मेरी लगन को
देखा. फिर मुझे कहा कि हफ्ते में सिर्फ दो
दिन मैं 12
बजे कॉलेज पहुंचूँ जिस दिन साइकोलॉजी प्रैक्टिकल होते थे. बाकी दिनों के लाइब्रेरी
क्लास को छोड़ने की छूट मुझे मिल गयी थी. अब जब रोज आ ही रही थी तो दो दिन आना कौन
सा मुश्किल काम था. अच्छा लगा कि कम से कम 4 दिन तो स्कूल
में बच्चों का प्रैक्टिकल ले पाऊँगी.
फिर पता नहीं क्या हुआ कि मेरी हेड को मुझ पर
दया आ गयी. लगभग डेढ़ महीने बाद साइकोलॉजी प्रैक्टिकल भी 1 बजे के बाद शिफ्ट कर दिया गया.
मुझसे कहा गया कि मुझे अब जल्दी आने की जरूरत नहीं है. 1 बजे
से साईं बाबा की प्रार्थना होती थी और सवा बजे से क्लास की हाजिरी. मुझसे बोला गया
कि इस बीच मैं पहुँच जाऊं. इससे अच्छी और क्या बात हो सकती थी. स्कूल जल्दी छोड़ने
का झंझट ही ख़त्म. अब जैसे ही स्कूल की फाइनल बेल बजती, मैं कॉलेज के लिए निकल
पड़ती.
क्लासेज, माइक्रो टीचिंग, चार्ट्स, लेसन प्लान,
मैक्रो टीचिंग, बागवानी, आर्ट्स और क्राफ्ट सब विधिवत चलता रहा. प्रैक्टिस टीचिंग
के लिए मुझे मेरा स्कूल नहीं दिया गया. एक अनजान स्कूल के नये माहौल में पढ़ाना था
जहाँ बच्चे मुझे नहीं जानते थे. वो भी कंप्यूटर नहीं बल्कि साइंस. क्यूंकि
कंप्यूटर विषय में बी. एड. नहीं होता था. शायद अब भी नहीं है. मुझे सातवीं की
केमिस्ट्री दी गयी और ग्यारहवी की बायोलॉजी. वहां की रेगुलर टीचर्स ने कोर्स का
कुछ हिस्सा हमें दे दिया था पढ़ाने को. क्रिटिसिज्म लेसन प्लान भी वहीँ हुआ.
देखते-देखते साल बीतने को आया(तब बी. एड. एक साल का होता था). हम परीक्षा के
नज़दीक आ चुके थे. बहुत मेहनत की थी. कब सुबह होती थी कब रात, इस पूरे साल में पता
ही नहीं चला. एकाएक फ़रवरी माह में मेरी तबियत बहुत ख़राब रहने लगी. लगातार
रक्तश्राव जारी था. जो काफी दिनों तक चला. माह के अंत में डॉक्टर को दिखाया.
उन्होंने कहा ऑपरेशन करना होगा.
भारी समस्या थी. मार्च आ चुका था. इम्तिहान का
महीना. एक तरफ अपने बच्चों के इम्तिहान, उन्हें पढ़ाना. दूसरी तरफ स्कूल में बच्चों
के इम्तिहान और जांचने के लिए उतनी कॉपियां. तीसरी तरफ मेरा बी.एड. का इम्तिहान.
उसके डेट्स भी तो आ गए थे. 15
अप्रैल से होना था. ऐसे में ऑपरेशन कराना
हर चीज़ के साथ बेइंसाफी होती. समझ में नहीं आ रहा था क्या करूँ? खुद को देखूं या इन
सब को. मेरे लिए तो एक चौथा इम्तिहान भी सामने था जो इन सबसे बड़ा था. वो था मेरे
धैर्य, मेरे परिश्रम, मेरे ईश्वर पर विश्वास का इम्तिहान.
फिर से एक निर्णय लेना था. एक भारी निर्णय. क्या
देखूं, क्या छोडूँ? बच्चों का साथ देना इस समय बनता था. उनके भी पूरे साल की मेहनत
थी. सिस्टर प्रिंसिपल ने मेरा इतना साथ दिया था. परीक्षा की घड़ी में मैं एकाएक
अपनी जिम्मेदारी से मुँह कैसे मोड़ लूं. दिल ने गवारा नहीं किया. रहा बी.एड का
इम्तिहान. बहुत जी-जान से मेहनत की थी पर लग रहा था अपनी मेहनत की कुर्बानी देनी
पड़ेगी. फिर भी ईश्वर पर विश्वास नहीं डिगा. जानती थी, मैं ही उसे उसके परीक्षा के
काबिल लगी हूँ तभी तो उसने मुझे इस परीक्षा की घड़ी में डाला.
बी. एड. के इम्तिहान को दांव पर लगा दिया. अपने
स्वास्थ्य को भी. अपने शरीर से एक वादा लिया कि मार्च के अंत तक मेरा साथ दे. मुझे
मेरी जिम्मेदारियां निभा लेने दे जो मेरी अपने बच्चों के प्रति है और अपने
विद्यार्थियों के प्रति भी. मार्च के अंत तक रिजल्ट बनाने तक मैंने ऑपरेशन न कराने
का फैसला लिया. मालूम था बहुत बड़ा रिस्क ले रही हूँ पर कभी-कभी ऐसे फैसले लेने पड़ते
है. प्राथमिकता तय करनी पड़ती है. वो मैंने किया. खुद से जीतना था मुझे.
रक्तश्राव जारी रहा. कमजोरी काफी आ गयी थी. पर सारे
काम और अपनी पढाई में उसे बाधा नहीं बनने
दिया. इस बीच एक और अनोखी बात हुई. सन 1984 के दिसम्बर, जब मेरी शादी हुई थी, से अब
तक, यानि सन 1999 के जनवरी तक मैं अपने विवाह पूर्व नाम, आरती
सिन्हा से ही जानी जाती थी. मेरे सारे डाक्यूमेंट्स में इसी नाम का उल्लेख था. न
पतिदेव न ही ससुराल वालों ने इसपर कभी कोई सवाल उठाया, न ही इसे बदलने के लिए मुझे
कभी बाध्य किया गया और न ही मैंने इसकी कोई जरूरत समझी. पर जब बी. एड. का फॉर्म
भरने लगी तो हमारी आदरणीय शिक्षिकाओं को ये बात बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ी कि मेरा
अभी भी सरनेम ‘सिन्हा’ क्यूँ है जबकि पति ‘कुमार’ लिखते हैं. उन्होंने मेरी एक न
सुनी और जबरदस्ती मेरे नाम में बदलाव का अफेडविट करवा डाला. बी. एड. में आई तो थी
‘आरती सिन्हा’ पर उससे निकलने वाली थी ‘आरती कुमार’.
दो परीक्षाएं चल रहीं थीं. मेरे बच्चों की और
मेरे विद्यार्थियों की. तीसरी मेरी सहनशीलता और शरीर के साथ की. घर वाले तो मेरे
साथ थे मेरा संबल बनकर पर समाज को ये नागवार गुजर रहा था. मुझे मेरे हठ के कारण
पागल, झक्की, मूर्ख, जिद्दी और पता नहीं क्या-क्या संज्ञाएँ दी जाने लगी थीं.
“अगले साल भी तो परीक्षा दे सकती है.”, “ऐसा क्या रखा है बी. एड. में?”, “पता नहीं
क्या बड़ा अवार्ड ले आएगी ऐसा करके?’ जैसे सवालों का जवाब किसी को नहीं मिल रहा था.
पर ये सब बातें मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती थीं. मुझे इन सब बातों की कोई परवाह
नहीं थी. बहुत मेहनत की थी अब एक साल और टालना मेरे वश में नहीं था. एक एक्स
स्टूडेंट की तरह परीक्षा देना सिर्फ एक पास की डिग्री लेने के लिए, ये मुझे गवारा
नहीं था. अब जो होगा सो देखा जायेगा बस यही दिमाग में घूमता था.
धीरे-धीरे ऑपरेशन का दिन भी नज़दीक आया और मेरी
बी. एड. की परीक्षा का भी. बच्चों के रिजल्ट आ चुके थे. तसल्ली थी कि उन्होंने
काफी अच्छा किया था. आख़िरकार 31 मार्च 1999 को मेरे ऑपरेशन का दिन तय
किया गया. माँ मेरे पास आ गयी थी मेरी देखभाल के लिए. ऑपरेशन का कोई भय नहीं था
पर एक ही सवाल था मेरे जेहन में जो मैंने डॉक्टर के सामने रखा-“क्या मैं 15 दिन के अन्दर 3 घंटे कुर्सी पर बैठने के काबिल हो
जाउंगी?” "ये कैसा सवाल है?"- डॉक्टर के मुँह से निकला था. वो मेरे इस सवाल को सुनकर आवाक्
थी.
ऑपरेशन साढ़े तीन घंटे चला. ऑपरेशन इतना उलझा हुआ
होगा इसका अनुमान डॉक्टर भी नहीं लगा पाई थी. 2 बार अनेस्थेसिया देना पड़ा. खैर ऑपरेशन सफल
रहा. 8 अप्रैल को टांके खुलने थे. मैं उन आठ दिनों में अपने
सीने पर रखकर किताबें पढ़ती और परीक्षा की तैयारी करती. मेरे हॉस्पिटल के बेड पर
मेरे साथ-साथ बी.एड की किताबों ने भी कब्ज़ा कर रखा था.
आखिरकार वो दिन भी आ ही गया जब टाँके खुलने थे. पर मेरा दुर्भाग्य कि एक नयी डॉक्टर को ये काम सौंपा गया. जैसा मुझे बाद में बताया गया था कि एक छोड़कर एक टाँके को पहले काटा जाता है और ये सुनिश्चित किया जाता है कि हीलिंग हुई है या नहीं. फिर बाकी टाँके काटे जाते हैं. पर इस डॉक्टर ने सारे टाँके एक साथ काट दिए. फिर पता चला की पेट जुड़ा ही नहीं था और अभी भी दो हिस्से अलग-अलग थे. पतिदेव तो बहुत नाराज़ हुए. हॉस्पिटल में बहुत आवाज़ बुलंद की इस नयी डॉक्टर और मुख्य डॉक्टर के खिलाफ, पर उससे क्या होना था. मेरे आँखों के आगे अँधेरा छा गया. सारी उम्मीदें ढहती हुयी प्रतीत होने लगीं. मैं दहाड़ें मार-मार कर रोने लगी. समझ में नहीं आ रहा था क्या करूँ. फिर भी हिम्मत करके डॉक्टर को दुबारा टांकें लगाने को कहा. उन्होंने साफ़ मना कर दिया इस तर्क के साथ की अभी स्किन बहुत नंब है टाँके 10 दिनों के बाद ही लगाये जा सकते हैं. मैं तब फिर फूट-फूट कर रोई. सिसकियाँ रोके नहीं रुक रही थीं. एक बड़े टेप को मेरे पेट के चारों तरफ तीन-चार बार कस-कस के घुमाया गया ताकि मेरे पेट के दो भाग एक दूसरे से चिपके रह सकें. अब कुछ भी हाथ में नज़र नहीं आ रहा था. पतिदेव केस करने का मन बना चुके थे और मैं डिप्रेशन में जा रही थी. उन्हें ऐसा कुछ करने से मना भी कर रही थी ताकि मेरी मनोदशा और ख़राब न हो. इस स्थिति पर मेरा कोई वश नहीं था. मुझे हॉस्पिटल से छुट्टी करा कर घर ले आया गया.
दो-तीन दिन बीते. मेरे आंसू थम नहीं रहे थे. मैं बैठ भी
नहीं सकती थी, तीन घंटे बैठने की कौन कहे. 15 अप्रैल पास आ गया था. एक निर्णय फिर से लेना था और अतिशीघ्र लेना था.
मैंने पतिदेव से बात की. उन्हें अपना फैसला सुनाया कि मेरी हालत जो भी हो मुझे परीक्षा
देनी है. उनसे कहा कि बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी से अलग से कुर्सी पर कुशन और लकड़ी
की तख्ती लगाकर परीक्षा देने की आज्ञा ले लें. पहले तो उन्होनें बहुत मना किया और
मुझे अपना ख्याल करने को कहा. पर मैंने ईश्वर की दी गयी चुनौती स्वीकार करने की
ठान ली थी. अंततः उन्होंने मेरी जिद के आगे हार मान ली. यूनिवर्सिटी से उसी दिन आज्ञा
ले ली गयी. कॉलेज में इसकी सूचना भी भिजवा दी गयी.
13 अप्रैल को मैंने पुनः उनसे एक अनुनय किया कि वो मुझे एक बार फिर से डॉक्टर के पास ले चलें. वहां जाकर डॉक्टर से कहा कि मुझे इसी स्किन पर फिर से टाँके लगवाने हैं. वो आनाकानी करने लगी. मैं अपनी बात पर आडिग रही. उसके ही उस बड़ी भूल और उसके कारण मेरे करियर में नुकसान का हवाला दिया. बड़ी मुश्किल से वो तैयार हुयी. एक पेपर लेकर आई पतिदेव से साइन करवाने के लिए. उन्होने साफ़ इनकार कर दिया साइन करने से. उस डॉक्टर पर से उनका विश्वास उठ चुका था. मैंने वो पेपर डॉक्टर के हाथ से छीना और कहा कि मैं साइन करती हूँ. शरीर मेरा है. इसकी ज़िम्मेदारी मैं लेती हूँ. आप तो दुबारा टाँके लगाओ.
13 अप्रैल को मैंने पुनः उनसे एक अनुनय किया कि वो मुझे एक बार फिर से डॉक्टर के पास ले चलें. वहां जाकर डॉक्टर से कहा कि मुझे इसी स्किन पर फिर से टाँके लगवाने हैं. वो आनाकानी करने लगी. मैं अपनी बात पर आडिग रही. उसके ही उस बड़ी भूल और उसके कारण मेरे करियर में नुकसान का हवाला दिया. बड़ी मुश्किल से वो तैयार हुयी. एक पेपर लेकर आई पतिदेव से साइन करवाने के लिए. उन्होने साफ़ इनकार कर दिया साइन करने से. उस डॉक्टर पर से उनका विश्वास उठ चुका था. मैंने वो पेपर डॉक्टर के हाथ से छीना और कहा कि मैं साइन करती हूँ. शरीर मेरा है. इसकी ज़िम्मेदारी मैं लेती हूँ. आप तो दुबारा टाँके लगाओ.
टाँके लगे. मैं घर वापस आ गयी. जिन्हें कभी भी टाँके लगे हैं वो ये दर्द जानते होंगे कि टाँके जैसे-जैसे सूखते हैं वैसे-वैसे उनके खिंचने से कितना दर्द होता है. और यहाँ तो वैसी हालत में बैठना भी था और टांकों पर अलग से खिचाव का ज्यादा प्रेशर भी पड़ना था. खास परीक्षा की अवधि के लिए एक मोबाइल टॉयलेट का इंतज़ाम किया गया क्यूंकि अगर उस दौरान जरुरत पड़ती तो भारतीय शैली के टॉयलेट में बैठना मेरे लिए असंभव था. 15 तारीख को पतिदेव मुझे परीक्षा दिलवाने ले गए. लकड़ी की एक तख्ती और एक कुशन उनके हाथ में था और मोबाइल टॉयलेट कार में. मेरा ही कॉलेज मेरा सेण्टर था. पर वहां का माज़रा तो कुछ और ही था. उन्होंने मेरी हालत जानते हुए भी मेरे बैठने का इंतजाम दूसरी मंजिल पर कर दिया था. पता नहीं कुछ लोगों का दिमाग कहाँ होता है? जो ठीक से चल नहीं पा रहा हो, बैठ नहीं पा रहा हो, वो भला सीढ़ियों से दूसरी मंजिल कैसे चढ़ेगा? ऐसे में मेरी एक सहपाठिनी सिस्टर(नन) लिस्सी ने उनलोगों को आड़े हाथों लिया. खूब चिल्लायीं उनपर और उनकी भावनाहीनता पर. आनन् फानन में नीचे के एक कमरे में मेरे बैठने का इंतजाम कर दिया गया. और परीक्षार्थी भी थे उस कमरे में, बस मेरी कुर्सी थोड़ी अलग हत्थे वाली थी, उसपर कुशन रख सकते थे और हत्थे पर लकड़ी की तख्ती टिका सकते थे. मैडम से पतिदेव ने बात कर ली कि किसी भी परेशानी की हालत में उन्हें खबर किया जाये. वो कॉलेज के गेट पर ही बैठे हैं. मुझसे कहा कि जब तक ठीक लगे मैं परीक्षा दूं अन्यथा मैडम से उन्हें खबर करवा दूं कि वो मुझे ले जायें.
पेपर देने किसी तरह बैठी. टाँके लगे 2 दिन भी नहीं हुए थे अतः वो बुरी तरह खिंच रहे थे. बहुत दर्द हो रहा था. चेहरा दर्द से लाल हो रहा था और आँखों से आंसू बहे जा रहे थे. एक हाथ से पेट को दबा कर बैठी थी उस दर्द को कुछ कम करने के लिए. आता सबकुछ था पर लिखने की हालत नहीं थी. कहते हैं कि पेपर में मार्क्स उनके वजन से आते हैं. मतलब जितना ज्यादा लिखो उतने मार्क्स. यहाँ तो मैं मेन कॉपी ही भरने की हालत में नहीं थी.. सप्लीमेंट्री तो सपना था. फिर भी मुझे कुछ करना तो था. पहली पोस्ट-ग्रेजुएट डिग्री मैंने बॉटनी में ली थी. डायग्राम बनाने में मुझे महारथ हासिल थी. कहते हैं कुछ हुनर हो तो कहीं न कहीं काम आ ही जाता है. उसी हुनर का सहारा लिया. सारे प्रश्नों के उत्तर पोस्टर्स बना-बना कर दिए. थोड़ा लिखती. फिर मेन पॉइंट्स लिखकर उनकी तीन चार लाइनों में व्याख्या करती और फिर पोस्टर्स और कॉल आउट्स बना कर उन्हें एक संक्षिप्त तरीके में समझाती. कुछ ऐसा कि उस चित्र को देखते ही सब स्पष्ट हो जाये. एक शोभा मैडम जो हमारी बी. एड. की टीचर भी थी और हमारी इन्विजिलेटर भी, वो बीच बीच में आकर मेरे आंसू पोंछती, सर सहलाती और पानी की बोतल खोल उसके ढक्कन से एक-एक घूँट पानी पिलाती ताकि मुझे दर्द का एहसास कम हो.
लेकिन शायद इतनी परीक्षा काफी नहीं थी. अभी कुछ और होना भी बाकी था. मेरी बी. एड. की परीक्षा शुरू ही हुई थी कि मेरी छोटी मौसी के हार्ट अटैक की खबर आ गयी. उम्र 40-45 के बीच की थी उनकी. उन्हें डॉक्टर ने बाईपास सर्जरी करवाने की सलाह दी. बहुत चिंतित हो गयी थी मैं. सबसे प्यारी मौसी और वो भी इस हाल में. हम भी ऐसी हालत में कि ऐसे समय उनके पास जा भी न पाएं?
माँ हमारे पास थी. उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया. कहा, परीक्षा के बाद चली जाना उनके पास. मौसी का सफल ऑपरेशन हुआ. दूसरा पेपर भी निकल गया. पतिदेव रोज कॉलेज के बाहर 3 घंटे मेरा इंतज़ार करते कि कहीं मुझे बीच में उनकी जरूरत न पड़ जाये, पर मैं बीच में कभी बाहर नहीं निकलती. कितनी भी असहनीय पीड़ा हो, पूरे तीन घंटे पेपर लिखती.
मैं बहुत ही आभारी हूँ अपने पतिदेव की कि अप्रैल की उस प्रचंड गर्मी में भी साढ़े तीन- चार घंटे बाहर गाड़ी में बैठे रहते मेरा इंतज़ार करते हुए. मेरी तपस्या में मेरा पूरा साथ देते हुए. गाड़ी में तब एसी भी नहीं था.
माँ आगे आयीं. उनकी सगी छोटी बहन गयी थी. उनपर क्या बीत रही होगी ये बताने की जरूरत नहीं. वो थोड़ी देर जड़वत थीं. फिर अपनी सारी भावनाओं को रोकते हुए मेरे पास पहुँचीं. आँसू उनकी आखों में भरे थे और किसी क्षण छलक सकते थे पर उन्होंने बड़ी दृढ़ता से उन्हें थामे रखा. ये वो माँ थीं जो पिक्चर में कोई भी सीन देखकर इमोशनल हो जाती थीं और उनकी आखों से अविरल धारा बहने लगती थीं. पर उस दिन पता नहीं उन्हें क्या हो गया था. मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा- “बेटा, मौसी हो या मैं, हम सब तुम बच्चों की खुशियाँ चाहते हैं. मौसी भले ही संसार से विदा हो गयी हो पर वो कभी नहीं चाहेगी कि तुम अपनी तपस्या बीच में छोड़ो. वो अब ‘कल’ है और ये परीक्षा तुम्हारा ‘आज’. बहुत कुछ का बलिदान किया है तुमने इसके लिए. इस आज को संवारो. मैं पापा को समझा दूँगी रीति-रिवाज. तुम्हारे मौसा और भाई बहन भी वहां हैं. उसकी चिंता मत करो. उठो, हिम्मत करो और परीक्षा के लिए निकलो.”
माँ दर्शन शास्त्र में एम. ए. थीं. पर आज तो जीवन दर्शन सामने आ गया था. माँ बिलकुल ऋषि-मुनियों की भाषा बोल रहीं थीं. ऐसा किताबों में पढ़ा था, आज साक्षात् अनुभव कर रही थी मैं. मुझे किसी तरह तैयार किया गया. ज़ाहिर है हम में से किसी ने मौसी के अंतिम दर्शन नहीं किये.
उस दिन का पेपर दो पीड़ाओं के साथ लिखा-एक शारीरिक और दूसरी दिल और अंतर्मन की पीड़ा. वो मौसी का आशीर्वाद ही था कि दोनों ही झेल पाई मैं. ये मेरे लिए एक अग्निपरीक्षा थी. आगे भी पेपर्स थे. एक-एक करके परीक्षा के अंतिम पड़ाव को पार कर लिया. मुश्किलों ने भी तब तक मुझसे हार मान ली थी. ईश्वर भी शायद मुझपर हैरान था. पेपर अच्छे ही गए थे. अब अच्छे रिजल्ट की उम्मीद थी.
पेपर तो हो गए थे पर इन सबके दरम्यान मैंने अपने शरीर के साथ बहुत अन्याय किया था. रोज खिंच-खिंच कर मेरे टाँके बुरी तरह पक गए थे. बहुत पस आ गया था उनमें. परीक्षा के बाद दो हफ्ते उसे ठीक कराने के लिये डॉक्टर और हॉस्पिटल के चक्कर लगाती रही. पस निकालना एक बेहद दर्दनाक प्रक्रिया थी. पर अब तक बहुत दर्द झेल लिए थे. उन दर्दों के सामने इस दर्द को झेलना ज्यादा मुश्किल नहीं था.
कुछ दिन और बीते. एक सहेली को देखने एक दिन एक हॉस्पिटल गयी थी. उसने मुझे उस दिन एक सरप्राइज दिया कि बी. एड. के रिजल्ट आ चुके हैं. पेपर भी हाथ में थमाया. सारे उत्तीर्ण लोगो के रोल नंबर थे. कांपते हाथों से पेपर देखा. ख़ुशी से उछल गयी जब अपना रोल नंबर भी उसमें दिखा.
शाम में मेरी डिपार्टमेंट हेड का फ़ोन आया. मुझे ये चौंका देने वाली खबर दी गयी कि मैंने यूनिवर्सिटी में टॉप किया है. मेरिट लिस्ट में सर्वोच्च स्थान पर. बी. एड. की गोल्ड मेडलिस्ट. मैं हतप्रभ थी. कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. जड़ हो गयी थी. कैसे प्रतिक्रिया दूं समझ नहीं आ रहा था. हाथों में रिसीवर लिए खड़ी थी. आँखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा था. मैडम हेलो हेलो कर रही थीं. धीरे से मुँह से निकला... थैंक्यू सो मच मैडम. मुझे दूसरे दिन सादर कॉलेज बुलाया गया था. “कॉलेज की शान” और “ कॉलेज का मान” कहकर संबोधित किया गया था.
फ़ोन रखकर मैं थोड़ी देर बैठ गयी. सारा घटनाक्रम आँखों के सामने जैसे सुस्पष्ट घूम रहा था. उठी. घर में सबको बताया. पार्टी हुई. सब बहुत ही खुश थे. चहक रहे थे. खुश तो मैं भी थी पर उसमें किसी को खोने का दर्द भी था और कईयों की कुर्बानियां भी.
कुछ और दिन बीते. अब मार्कशीट भी आ गयी थी. एक और धमाकेदार खुशखबरी मिली. मैंने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़े थे. 91.3 % मार्क्स लेकर बी. एड. उत्तीर्ण किया था. कितना सही है मालूम नहीं, पर जैसा मुझे बताया जाता है, मेरा रिकॉर्ड आज भी कायम है और आज तक इसे किसी ने नहीं तोडा है. एक और अन्दर की बात भी मुझसे साझा की गयी. मुझे बताया गया कि कॉपी चेकिंग के दौरान एक तरह की कॉपियों की बहुत तारीफ़ होती थी. उनके सुस्पष्ट उत्तरों की और विशेष कर डायग्राम और पोस्टर बनाकर पॉइंट्स को स्पष्ट करने की क्रिएटिविटी की. आज तक ऐसी कॉपियाँ नहीं आयीं थी चेकिंग के लिए. कॉपी में रोल नंबर्स नहीं होते थे पर ये विदित था कि ये एक टॉपर की कॉपियाँ होने वाली थीं. मुझसे पूछा गया था- “वो कॉपियाँ तुम्हारी ही थी ना?”
आज मैं सर उठा कर कह सकती हूँ कि मेरे पास एक बेशकीमती बी. एड. की डिग्री है. चार-पांच बार कॉलेज भी जाना हुआ इसके बाद. वहां रोल ऑफ़ ऑनर में आज भी मेरा नाम चमकता है. बहुत गौरवान्वित महसूस करती हूँ उसे देखकर.
पर इसे हासिल करने में मैंने बहुत कुछ खोया- एक बहुत अपने, अपनी मौसी, को खोया, अपने पिता के दिए सरनेम ‘सिन्हा’ को खोया, बहुत नीदें खोयीं.
बहुत कुछ पाया भी. अपनों का साथ, विशेष कर अपने पतिदेव का-जिन्होंने मेरे जिद को मान दिया था और मेरी काबिलियत पर विश्वास किया था, अपने बच्चों का-जो मेरी प्रेरणा थे, अपनी माँ का-जिन्होंने एक जीवन दर्शन से रूबरू कराया और उसे निभाने की सबलता दी, खुद पर विश्वास का-जो इन विषम परिस्थितियों में भी डिगा नहीं.
सफलता कभी व्यक्तिगत नहीं होती. बहुत लोगों का योगदान होता है उसमें. मैं सदा आभारी रहूंगी अपनी सिस्टर प्रिंसिपल की-जिन्होंने मेरे बी. एड. के शुरू के दिनों में मेरा पूरा साथ दिया, मेरे बी. एड. की टीचर्स की-जिन्होंने मेरे लगन को पहचाना और मेरे लिए टाइम टेबल और टाइम में समायोजन किया, सिस्टर लिस्सी की-जिन्होंने मेरे सीटिंग व्यवस्था के लिए लड़ाई लड़ी और शोभा मैडम की-जिन्होंने मेरी परीक्षा के समय मेरा दर्द समझ कर अपने हाथों को सर पर फिराकर उस दौरान मुझमें नयी उर्जा का संचार किया.
जो लोग इन सबके दौरान मुझे जिद्दी और झक्की कह रहे थे उनके सुर और स्वर मेरे रिजल्ट के बाद बदल गए थे. मेरे जिद्दीपन और झक्कीपन को दृढ इच्छा शक्ति का नाम दे दिया गया था. मैं भी तो बदल गयी थी न-‘आरती सिन्हा’ से ‘आरती कुमार’ में.
P.S. प्रवेश परीक्षा परिणाम और बी.एड. मार्कशीट एवं डिग्री में मेरे नाम पर गौर करना न भूलें
P.S. प्रवेश परीक्षा परिणाम और बी.एड. मार्कशीट एवं डिग्री में मेरे नाम पर गौर करना न भूलें
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प्रवेश परीक्षा परिणाम |
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भटसूअर |
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बी.एड. मार्कशीट |
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बी.एड. डिग्री |
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कॉलेज इनविटेशन |
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कॉलेज सर्टिफिकेट |
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कॉलेज मैगज़ीन "दिव्या" में |
you are inspirational to all of us I salute to your hard work it's really unbelievable....and I would like to read your next story......
ReplyDeleteThank you so much Sweta.Yes I will be writing more. All will be my own experiences
DeleteThanx for sharing with us.Because of this, we have identified influential personality.I got inspiration from you.I have been promising myself ,I will never give up in life.
ReplyDeleteDr. Aarti Kumar24 May 2018 at 10:35
DeleteLife is precious a gift to us from God and a treasure of our parents. God has bestowed us with tremendous strength and powers. We only need to peep into ourselves and recognize our own capabilities. By giving up we are putting God to shame and our parents too.Think positive, believe in yourself
You are inspirational for us, congratulations for your result n salute to your hard work.
ReplyDeleteWaiting for your next blog
Thank you Pooja for your appreciation. Yes, will post soon.
DeleteYou are inspirational for us, congratulations for your result n salute to your hard work.
ReplyDeleteWaiting for your next blog
That's a truly inspirational journey.. we learnt to never leave hope and confidence in any situation of life.. salute for you ma'am..
ReplyDeleteThanks a lot Mamta.
DeleteIts so inspiring ma'am. You have set an example that "if your goal is set and you are determined,nothing is impossible".I read your every blog and waiting for next.
ReplyDeleteThank you so much Vandana for your appreciation. Will be coming up with the next soon.
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